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प्राचीन संस्कृत-साहित्य में मानव समता केवल कुछ अपवाद मात्र है, सूखते हुए वंशवृक्ष को पुनरुज्जीवित करने के लिये प्रयास मात्र है। धर्मशास्त्रकारों का बहुमत विधवाओं के तपस्वी जीवन का ही पक्षपाती था। स्त्रियों के कुछ विशेषाधिकार
__कुछ माने में भारतीय स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा विशिष्ट अधिकार प्राप्त थे। स्त्रियों की हत्या नहीं की जा सकती थी। मार्ग आदि में उन्हें आगे निकल जाने का अवसर प्रदान किया जाता था। पतित व्यक्ति का पुत्र पतित माना जाता था, किन्तु पतित की कन्या पतित नहीं समझी जाती थी, वह स्वाभाविक रूप से समाज-ग्राह्य थी।' समान अपराध के लिये स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा आधा ही प्रायश्चित्त करना पड़ता था। ब्राह्मणों की भाँति स्त्रियाँ भी करमुक्त थीं। घाट आदि की उतराई में भी उन्हें कोई कर नहीं देना पड़ता था। स्त्री-धन के अधिकार में पुत्रों की अपेक्षा पुत्रियों को प्रमुखता प्राप्त थी । (मनु० ९।१३१)।
जहाँ तक पारिवारिक परिवेश में स्त्री के अधिकार की बात है, उसका स्थान असंदिग्धरूप से सर्वोपरि था । 'गृहिणीगृहमुच्यते' पत्नी को 'गृह' ही कहा जाता था। वह घर की सार्वभौम साम्राज्ञी थी, परिवार के सदस्यों को उचित पुरस्कार प्रदाता थी। उसका गौरव पिता के गौरव से एक हजार गुना अधिक था। घर का दैनन्दिन एवं वार्षिक वजट उसके हाथों में रहता था। उसे घर की सारी सूक्ष्म बातें ज्ञात रहा करती थीं। दाय-भाग
__ मनु के अनुसार दाय-भाग की दृष्टि से पुत्री एवं पुत्र समान थे, दोनों ही दाय के अधिकारी थे। किन्तु अन्य प्रसंगों के विवरण से पता चलता है कि पुत्र की अनुपस्थिति में ही पुत्री को दाय-भाग की अधिकारिणी माना जाता था। पुत्र के अभाव में पुत्री के रहते कोई अन्य सम्बन्धी आदि किसी व्यक्ति के धन का अधिकारी नहीं माना जाता था।"
१. वशिष्ठधर्मसूत्र १३।५१-५३, आप० ध० सू० २।६।१३।४; आदि । २. आप० ध० सू० २।१०।२६।१०-११ । ३. सहस्रं तु पितन् माता गौरवेणातिरिच्यते । मनु० २।१४५ । ४. महाभारत, वनपर्व (अ० २३३) और कामसूत्र (६।१।३२) । ५. यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा ।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत् ॥ मनु० ९।१३० ।
परिसंवाद-२
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