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ओर संकेत करते हुए कहा गया कि सामाजिक समता की उचित और निर्बाध उपलब्धि के लिए आवश्यक है कि व्यापक मूल्य चेतना के अन्तर्गत ही हम प्रयत्न करें ( डा० नवजीवन रस्तोगी ) । इसके समाधान में बौद्ध और जैन विचारक अपने दर्शन से अधिक आश्वस्त हैं किन्तु उनके समक्ष जीवन के सभी प्रमुख क्षेत्रों में . समतावादी जीवनदर्शन के प्रयोग का प्रश्न ज्वलन्त रूप में खड़ा है । कर्मवाद और पुर्नजन्मवाद की उनकी परम्परागत मान्यता को जब तक नया सन्दर्भ नहीं मिलता, तब तक ऐहिकतावादी समता की समस्या उससे अलग-थलग ही पड़ी रहेगी। जिस कर्मवाद के आधार पर बौद्धों ने शाश्वतवाद और गतिहीनता की मान्यताओं का निरास किया और उसके परिणामस्वरूप मानववाद, सर्वसंग्राहक करुणा के सिद्धान्त को स्थापित किया, किन्तु उसको जो एक सीमा थी उससे समता के बाह्य प्रयोग में कुण्ठित-सी पड़ गयी । ईश्वरवादी और आत्मवादी कर्मवाद के समक्ष इस समस्या का समाधान और भी कठिन हो जाता है ।
कर्मवाद की इस समस्या पर भी विद्वानों के अनेकविध मत सामने आये । इस प्रसंग में दृष्टकर्म और अदृष्टकर्म, व्यक्तिकर्म और समूहकर्म तथा उसके व्यक्तिगत फल और सामूहिक फल पर वैदिक और श्रमण सभी दृष्टियों से विचार-विमर्श किया गया। परम्परागत मीमांसा शास्त्र के अनुसार कहा गया कि जिन कर्मों का फल ऐहिक जीवन में ही होता है उनका निर्णायक प्रमाण व्यवहार है, किन्तु उन कर्मों का प्रमाण वेदमूलक होगा, जिनका फल कालान्तर में होगा, फलतः उसका वर्तमान काल में व्यक्ति द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता है ( पं० पट्टाभिराम शास्त्री ) । कर्मफल को विषमताका आधार मानने की बात का विश्लेषण करते हुए एक यह विचार प्रकट किया गया कि विषमता की भावना मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है । इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना न तो सम्भव है और न मानवता के हित में है । किन्तु समाज में जो कृत्रिम विषमता व्याप्त है, वह समाज और शासन की व्यवस्थागत त्रुटि का परिणाम है । प्राकृतिक विषमता पूर्वकर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त होती है जैसे लिंग, रंग और बुद्धि आदि की विषमता | किन्तु छूआछूत, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि व्यवस्था जन्य है । इसके निराकरण को अवश्य प्रयास होना चाहिए। भारतीय दर्शन इस प्रयास में कहीं बाधक नहीं अपि तु साधक ही हैं ( प्रो० बदरीनाथ शुक्ल ) । इस प्रसंग में दृष्टकर्म और अदृष्ट के बीच विभाजन रेखा क्या हो ? इस पर भी विचार किये गये । कहा गया कि बहुत से ऐसे कर्म हैं, जो एक समय में अदृष्ट कोटि के थे किन्तु अब वे मानव विज्ञान और भौतिक विज्ञानों की नयी जानकारी के साथ में आते जा रहे हैं । उनके सम्बन्ध में अदृष्ट की कल्पना करना और उसके परिणामों को दैवाधीन स्वीकार कर लेना कहाँ तक तार्किक एवं वैज्ञानिक होगा ? इसका ध्यान रखना होगा कि सभी भारतीय दर्शनों ने एक स्वर से दृष्ट के उपपन्न होने पर अदृष्ट की कल्पना को सर्वथा अप्रामाणिक माना है (प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय) सामूहिक और व्यक्ति कर्म तथा उसके फल पर भी विचार-विमर्श हुआ । यह
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