________________
१७८
. भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं होते हैं, पर सत्य यह है कि कोई भी दो मनुष्य एक सा नहीं, चाहे मोटे तौर पर देखें या सूक्ष्मदर्शी से । और तो और हमारी अंगुलियों के छाप तक तो मिलते ही नहीं। यह वैयक्तिक विविधता विकास के करोड़ों-करोड़ों वर्षों के लम्बे ऐतिहासिक क्रम तथा पर्यावर्ती विविधता के प्रति प्रतिक्रिया की देन है। हर व्यक्ति अपने प्रकार का अकेला अनोखा, अनूठा होता है-जितने हुए या हैं उनसे एकदम अलग । कोई भी सन्तान अपने पूर्वजों का प्रतिरूप नहीं होता। इसी असदृशता और विभिन्नता का इतिहास है उद्विकास । यही है पुनर्जन्म की प्रक्रिया, और यही है कर्म-सिद्धान्त का आधार ।
हम केवल अनेक प्रकार के ही अकेले नहीं, इतनी बड़ी दुनिया में हर प्रकार से अकेले हैं, हमारा यहाँ कोई नहीं। जहाँ जोने का मंत्र है संघर्ष, रहने का तंत्र है द्वन्द्व, विकास का यंत्र है द्वेष । हम घिरे हैं केवल शत्रुओं से। जो दुनिया से लड़ नहीं सकता, दुनिया में जी भी नहीं सकता। जो जीवन-संघर्ष में हार जाता है उसे दुनिया मसल कर मिटा डालती है और अपनी विजयस्मृति के नमूने के रूप में सुरक्षित रख लेती है अपने अजायबघरों में। यह बीरभोग्या वसुन्धरा केवल बलवानों की बपौती है । यह एक सच्चाझूठ है कि हम सज्जन हैं, शान्ति प्रेमी हैं। अकारण आक्रमण हमारी प्रकृति है । आदमी से हमारी आदिम दुश्मनी है। दूसरे को खटाना हमारा पेशा है । धूर्तता हमारा धन्धा है। स्वार्थ हमारा एक और केवल एक अपना पाया गुण है । प्रेम-घृणा, राग-द्वेष, बैर-प्रीति तो इसी की पूर्ति की खोज में सीखे गए, कमाए गए, गुण हैं । हम समझ पायें या नहीं, हमारा रूप है इंसान का, काम है हैवान का । आज हम और कुछ बहुत हैं मनुष्य कुछ भी नहीं । यह हैं हम और यह हैं हमारी दुनिया। व्यक्ति और व्यक्तित्व
प्राणिशास्त्रीय दृष्टि में व्यक्तित्व व्यक्ति का वह गुण है जो उसे औरों से अलग करता हैं, अलग दिखाता है । प्रकृति में इसी कारण विविधता हैं, विषमता है । शरीर और विचार को विभिन्नता ही जीवन का लक्षण है। हम अपने असंख्य पूर्वजों के अनुक्रमागत रूपान्तरित वंशज हैं, अतः हमारा एक अलग व्यक्तित्व है। जो जन्म के समय जैसा बनकर आता है, जीवन भर वैसा ही रह जाता है। वातावरण उसमें कोई परिवर्तन नहीं ला सकता। चुम्बक चाहे जहाँ लटका दें रहेगा उत्तर-दक्षिण ही। सम्भव है किसी के प्रभाव में थोड़ी देर के लिए उसकी दिशा बदली दीखे, पर प्रभाव हटते ही वह फिर अपनी मूल स्थिति में आ जाता है । ठीक ऐसे ही हमारी प्रकृति अचर है। उस पर कोई चूंघट भले ही डाल दे, पर प्रवृत्ति बदल नहीं सकती। अनुकल संवेदन मिलते ही ऊपर की पड़ी पर्त कुरेद कर हम जैसे के तैसे हो जाते हैं। इस
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org