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व्यक्ति और समाज : बौद्ध दृष्टि का एक वैज्ञानिक विश्लेषण
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नहीं रखा । उनका दृष्टिकोण वस्तुवादी नहीं व्यक्तिवादी था। हाँ, बाद के लोकोत्तरवादी आचार्यों ने गौतम बुद्ध को वैदिक प्रतीकों के साँचे में ढाल कर लोकोत्तर बुद्ध बना डाला और तत्कालीन प्रचलित ज्ञान राशि से व्युत्पन्न प्रज्ञप्ति, संवृत्ति एवं निर्हेतुक सत्यों, क्षणिक, शून्य, अनित्य आदि वादों तथा हीनयान, महायान आदि शाखाओं के कल्पना-तत्त्वों के आधार पर जगत की व्याख्या का स्तुत्य प्रयास किया। पर मुझे तो वे उलझे अधिक, सुलझे कम लगते हैं । उनमें यथार्थ ज्ञान का अभाव है। हम और हमारी दुनिया :
___अब यह एक निर्विवाद, निस्सन्देह और निश्चित सत्य हैं कि हमारा जीवन एक कोषिका से प्रारम्भ होता है। हमारी सृष्टि का भी सारा मसाला वही हैं जो अन्य जन्तुओं का। इसे अस्वीकार करने की हममें हिम्मत नहीं कि हम प्रकृति से एक जानवर हैं । सभी जानवरों की तरह हम भी रासायनिक क्रियाओं और शारीरिक स्रावों के दास हैं। हम केवल रासायनिक संगठनों के पुतले हैं। हमें चुनाव की स्वतंत्रता नहीं। हम अनेक प्राकृतिक पर्यावरणों के दास हैं-माता के उदर में उदरस्थ वातावरण के, बाहर आकर सूर्य, वायु, जल, ताप, दाब, प्रकाश के; अपने रुधिर में उपस्थित तथा समुद्र जल में उपस्थित लवणों के अनुपात के, तंत्रिका तंत्र की संवेदनशीलता के, ग्रंथि-स्रावों की संयुक्त कार्य-प्रणाली के । पर सबसे अधिक जकड़ कर बँधे हैं हम अपने वंशानुगत प्राभूत से, युगों युगों से आते आनुवांशिक विशेषकों के वाहक जीनों के प्रभाव से, जो पीढ़ी दरपीढ़ी जन्मकाल में ही हस्तान्तरित होते रहते हैं। ये जीन शुद्ध रसायनिक जटिल होते हैं और जीवन तथा जाति की अविच्छिन्नता को बनाये रखते हैं। इन्हीं को हम संस्कार कहते हैं । मन और कुछ नहीं केवल इन्हीं संस्कारों का पुंज है। हमारी क्रिया का सम्बन्ध इसी रागात्मक मन से होता है और कहीं से नहीं। हम जो कुछ करते हैं इन्हीं परम्परागत संस्कारों से प्रेरित होकर करते हैं। हमारी प्रवृत्ति उतनी पुरानी है जितना जीव जगत । हमारी उम्र हमारे जन्म काल से जोड़ना भूल है। हमारी क्रिया का सम्बन्ध वर्तमान परिस्थितियों में खोजना भ्रम है ।
प्रत्येक माता-पिता के भिन्न पूर्वजों के कारण सम्भावित जीनों के क्रमचय तथा संचय की समुच्चय संख्या गणनातीत हो जाती है। इनमें से कोई एक ही समुच्चय नवजात शिश को मिल पाता है। इसी कारण इतने विशाल और जनसंकूल संसार में भी प्रत्येक जवजात शिशु अद्वितीय और अन्यों से नितान्त भिन्न होता है। अमेरिका की स्वतन्त्रता की घोषणा का पहला वाक्य है-'सभी मनुष्य समान पैदा
परिसंवाद-२
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