________________
१७६
भारताय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
पूर्ण स्वानुभव का है। उनका धर्म 'स्वयं करो धर्म' है । उनके सत्य की खोज में अविद्या का नाश अनिवार्यतः निहित है । इसके लिए विशेष दक्षता चाहिए, असाधारण अभ्यास चाहिए, श्रेष्ठ अनुशासन चाहिए और चाहिए असामान्य आत्मसंयम । उनका सिद्धान्त इसीलिए देश और काल से अबाधित है | वह सार्वकालिक है, सार्वदेशिक है । उसका केन्द्र केवल और केवल व्यक्ति है । उनके सारे आदेश, सारे उपदेश, सारे संदेश व्यक्ति और व्यक्ति के लिए हैं ।
वे ईश्वर की सत्ता का खण्डन करते हैं और मानते हैं कि व्यक्ति ही अपने भाग्य का विधाता है । उसके जीवन को नियंत्रित करते हैं उसके कर्म । परन्तु उनकी कर्म - चेतना भी एक मानसिक प्रक्रिया है। उनका कर्म - सिद्धान्त महज़ मानसिक अनुकूलन है । बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, व्यक्ति की उद्घोषणा है । उनका मत नितान्त व्यक्ति केन्द्रित है । उनकी सारी प्रक्रिया वैयक्तिक उद्विकास की क्रिया है । उनका धर्म विशुद्ध व्यक्ति धर्म है । उसमें मुँह नहीं चरित्र बोलता है, व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व बोलता है । इसीलिए वह कोई वाद नहीं, सम्प्रदाय नहीं, जीने की सच्ची सीधी कला है । वहाँ सारा संघर्ष अस्तित्व के लिए नहीं, अस्तित्वहीनता के लिए है । वहाँ साधन हैं केवल आत्म-परीक्षण, आत्मनिरीक्षण और आत्मान्वेषण |
I
ईसामसीह की तरह उन्हें स्वप्न में ईश्वरपुत्र होने का सन्देह नहीं मिला था । मुहम्मद की तरह वे खुदा के पैगम्बर बना कर नहीं भेजे गए थे । और न ही राम और कृष्ण की तरह स्वयं भगवान ही उनके रूप में यहाँ अवतरित हुए थे । वे तो केवल मनुष्य थे । वे उन व्यक्तियों में थे जो अपने व्यक्तित्व को स्वयं अपनी रुखानी से काट छाँट कर गढ़ा करते हैं । वे स्वयं अपना शिल्पी थे । इसी लिए व्यक्ति ही उनका श्रेय है, प्रेय है, ध्येय है। उनका मार्ग आत्मक्रान्ति का मार्ग है । उनका अभियान व्यक्ति को केन्द्र मान कर प्रारम्भ होता है । उनके यहाँ सब कुछ व्यक्तिसापेक्ष है । उनकी प्रक्रिया है केवल आत्मसाधना । वे सदैव से व्यक्तित्व के ही पालक, पोषक, प्रचारक, प्रसारक और प्रकाशक रहे हैं ।
भगवान बुद्ध की तत्त्वशास्त्र के प्रति विरोधात्मक प्रवृत्ति थी, सम्भवतः इसी लिए कि उस समय तात्त्विक विचारों में भी उतनी ही अराजकता थी जितनी नैतिक आचारों में । जब कभी उनसे जीव, आत्मा, जगत, ईश्वर के विषय में प्रश्न पूछे जाते तो वे मौन हो जाते। ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत कह कर टाल दिया गया । उन्होंने केवल मनुष्य को सर्वोपरि माना; चराचर के साथ उसके सम्बन्ध का ध्यान
परिसंवाद - २
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org