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समकालीन भारत में व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों की दिशा आचरणों पर किसी अन्य प्रकार का अंकुश नहीं माना जाता तो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के स्वच्छन्दता में परिवर्तित होने में देरी नहीं लगती।।
वर्तमान काल में पश्चिमी देशों में मान्य व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता उन देशों के आर्थिक विकास के प्रारम्भिक काल में नहीं थी। सोलहवीं शताब्दी से प्रोटेस्टेण्ट धर्म ने योरोप के व्यक्ति के आचरण को नियन्त्रित किया और अब भी वह अपनी वृत्ति में अथवा व्यवसाय में निष्ठा के साथ काम करता है। आर्थिक और राजनीतिक संगठनों में शिक्षण संस्थाओं में तुलनात्मक दृष्टि से पर्याप्त अनुशासन है। अन्य क्षेत्रों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता की कामना देश के आर्थिक विकास से उत्पन्न समृद्धि के उपभोग की लालसा प्रतीत होती है। भारत में इस प्रकार की स्वतन्त्रता का अनुकरण विशेष रूप से व्यवसाय या वृत्ति में निष्ठाहीनता और सामान्य शालीनता की की पृष्ठभूमि में घातक है। यह इसलिये भी घातक है कि यहाँ जनसंख्या का बाहुल्य है और आर्थिक साधन सीमित है।
अब प्रश्न यह उठता है कि यदि सामान्यतः समष्टि की रक्षा के लिये और विशेषतः आर्थिक विकास के लिये व्यक्ति को अनुशासित करना आवश्यक है तो इसके क्या साधन हैं ? ऐतिहासिक दृष्टि से भारत और योरोप में यह कार्य धर्म ने किया है। जापान में मेइजी रेस्टोरेशन के शासन के बाद १८६८ से यह कार्य परिवार और शिक्षण संस्थाओं ने किया। रूस और चीन में यह कार्य लेनिन के शब्दों में 'राजनीतिक शिक्षा' ने किया। ऐसा लगता है कि भारत में यह कार्य 'राजनीतिक शिक्षा' नहीं कर सकेगी, क्योंकि सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था विषाक्त है। इसे संगठित प्रयत्नों से परिवार और चुनी हुई शिक्षण संस्थाओं से प्रारम्भ करना होगा। जहाँ कहीं भी धर्म इसमें सहायक हो सके, वहाँ धर्म का सहारा लेना होगा।
परिसंवाद-२
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