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परम्परागत व्यवस्था में व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध :
मानवविज्ञान दृष्टि
डॉ० बैद्यनाथ सरस्वती प्रस्तुत व्याख्यान में हम मानवविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में भारतीय परम्परागत व्यवस्था में व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
समाज एक व्यापक शब्द है। समूह और परिवार से समाज नहीं बनता। पशुओं में समूह और परिवार है किन्तु उनका समाज नहीं बनता। समाज मानवीय व्यवस्था है। जिस अर्थ में परिवार की व्याख्या होती है उस अर्थ में इसरायल के किबूज समाज में परिवार नहीं है।
पाश्चात्य समाजविज्ञान में कहा गया है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है । भारतीय दर्शन में मनुष्य को इतना सीमित नहीं किया गया है। व्यक्ति समाज से ऊपर उठता है, ब्रह्माण्ड में अपना अस्तित्व बोध करता है, समाज से परे शक्तियों के साथ सम्पर्क करता है और जब समाज पतित होता है तो उसका परिष्कार करता है। आज समाज के बहुतेरे कार्य का दायित्व राज्य (स्टेट) ने ले लिया है और व्यक्ति समाज से छूटकर सीधे राज्य से जुड़ रहा है।
समाजविज्ञान में व्यक्ति और समाज की व्याख्या संरचना (स्ट्रकचर) और क्रियात्मकता (फन्कशन) के सिद्धान्त पर आधारित है। जब हम रचना शब्द का व्यवहार करते हैं तो उससे हमारा तात्पर्य होता है हिस्सा अथवा टुकड़े की एक निर्धारित व्यवस्था । संगीत की एक रचना होती है । वाक्य की एक संरचना होती है। शरीर के सेल की जटिल संरचना एलेक्ट्रान और प्रोटान्ग के बीच सम्बन्धों का एक समुच्चय है। उसी प्रकार सामाजिक संरचना की इकाई अथवा टुकड़ा व्यक्ति होता है। इसमें व्यक्ति एक दूसरे से सम्बन्धों से जुड़ा रहता है और उसका स्थान तथा रोल निर्धारित रहता है।
सामाजिक जीवन की निरन्तरता, संरचना की निरन्तरता पर निर्भर करता है। एक राष्ट्र, एक जाति, एक गोत्र, एक संस्था व्यक्तियों की व्यवस्था का अस्तित्व बनाये रखता है, यद्यपि इसको बनाने वाले व्यक्ति समय-समय पर बदलते रहते हैं। सामाजिक रचना की निरन्तरता उसी प्रकार बनी रहती है जिस प्रकार मानव
परिसंवाद-२
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