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________________ १६० भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ आचरण को बनाती, सँवारती और आवश्यक हुआ तो नियन्त्रित करती थीं । पर इन समष्टियों अथवा इकाइयों तथा धर्म से निर्देशित व्यक्ति का समाजीकरण व्यक्ति के आचरण पर आन्तरिक नियन्त्रण उत्पन्न करता था । इसलिये बाह्य नियन्त्रण की आवश्यकता कम पड़ती थी । इस स्थिति में शनैः शनैः परिवर्तन हुआ और स्वतन्त्रता की प्राप्ति ने इस स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया । कम से कम १८७२ से ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीति के कारण सम्पत्ति के मामलों में व्यक्ति को परिवार, जाति अथवा गाँव से स्वतन्त्र इकाई के रूप में मान लिया गया । उसी काल में विशेष विवाह अधिनियम ने विवाह के विषय में भी व्यक्ति को परिवार एवं जाति से स्वतन्त्र कर दिया । भारत की स्वतन्त्रता के बाद नया संविधान बना और व्यक्ति को इसकी आधार - शिला माना गया । नये संविधान ने भारत राष्ट्र को समष्टि के रूप में माना तथा जाति एवं वर्ग की समष्टियों को नकार दिया । हाँ, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को समष्टियों की सत्ता की मान्यता बनी रही । पर संविधान की इस स्थिति को सामाजिक स्तर पर अनूदित करने के लिये कोई भी कदम नहीं उठाये गये । संविधान में भारत राष्ट्र को समष्टि मानने में और व्यक्ति के द्वारा इसे एकमात्र समष्टि स्वीकार करने में अन्तर है । इस अन्तर को दूर करने के लिये व्यक्ति की चेतना में परिवर्तन लाना आवश्यक था । इसे लाने का कोई भी प्रयत्न नहीं किया गया । नैतिकता पर आधारित आचरण व्यक्ति को समष्टि के हितों के लिये स्वार्थों का हनन करने के लिये सन्नद्ध करते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से समष्टि से बाँधते हैं । पर आचरण को नैतिकता की आधारशिला पर प्रतिष्ठित करने के लिये भी कोई प्रयत्न नहीं किये गये । इन प्रयत्नों के अभाव की पूर्ति वर्तमान पाश्चात्य दर्शन में व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता की धारणा ने की। इस दर्शन की चरम परिणति अमरीका के न्यायमूर्ति होम्स के इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि “जब लोग कोई काम करना चाहते हैं और मैं संविधान में इस काम का कोई स्पष्ट निषेध नहीं पाता तो मैं कहता हूँ कि चाहे मुझे यह कार्य पसन्द हो या न हो, उन लोगों को करने दो, मुझसे क्या मतलब है ।" (When the people want to do Something I con't find any thing in the constitution expressly forbidding them to do, I Say, whether I like it or not, 'Goddamnit, let 'em do it !') यह स्पष्ट है कि किसी भी संविधान में समष्टि की दृष्टि से अनुचित सभी प्रकार के आचरणों का निषेध समाविष्ट नहीं किया जा सकता। यदि संविधान के अतिरिक्त परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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