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व्यष्टि एवं समष्टि के सन्दर्भ में ब्रह्मविहार, बोधिचित्त और ज्वलिता चण्डाली १५३ है। योगशक्ति बिना चित्त में कोई परिवर्तन नहीं होता है। अतः ब्रह्मविहार, बोधिसत्त्व और ज्वलिता चण्डाली मुख्यतया योग की स्थितियाँ हैं। जिससे चित्त की संकीर्णता नहीं रहती है।
अतः सिद्धाचार्यों ने बोधिचित्त के आधार पर प्रज्ञा और उपाय तथा कमलकुलिष अद्वयसमता योग की साधना की। जिसको (स-ह-ज) सहज साधना भी कहते हैं। यह भी रागात्मिका साधना है। जिसमें साधक या योगी के चित्त में वैयक्तिक सुख को कभी महासुख नहीं बताया गया है। जिसमें अपरिशुद्ध वायुस्था चण्डाली को पूरी तरह दग्ध करना पड़ता है। अपरिशुद्धा वायुस्था अवधूती नाड़ी सत्त्वों को अकुशल कर्म के प्रति ले जाती है, लेकिन डोंबी नाड़ी परिशुद्धा अवधूती सम्यक् योगयुक्त होने के कारण फल या सिद्धि मिलती है। समाज के हित और कल्याण के लिए बोधिचित्त स्वभावतः क्रियाशील है। किन्तु यह बोधिचित्त मैत्री, करुणा, उपेक्षा, मुदिता संप्रयुक्त अनालम्बन चैतसिक स्थिति है । जहाँ पर प्रज्ञा और उपाय तथा शून्यता और करुणा युगपत् विराजित होते हुए भी एकस्वभाव या महसुखभाव समतायोगस्थ युगनद्धस्थिति में सर्वसत्त्वों का हित विधान करते हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि बौद्धधर्म दर्शन और साधना के आदि से ही वैयक्तिक विकास के साथ रूपलोक, अरूपलोक तथा देव, मनुष्य, तिर्यग्, गन्धर्व, यक्ष, रक्ष सकल सत्त्व संक्षेपतः समाज के चैतसिक की तरक्की की गयी है। व्यावहारिक और पारमार्थिक देशनाएँ तथा सूत्र और अभिधर्म के आधार पर भिक्षुसंघ और बुद्धविनय का प्रसाद हुआ था। किन्तु कभी भी अहम्' तथा ममत्व की अनरियदिट्टि की मान्यता नहीं दी गयी । कारण आत्मभाव खण्डन कर अनात्मा, अनित्यता के आधार पर बुद्धदेव ने उदान वाणी में कहा था
चरथ भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय हिताय सुखाय च देवमनुस्सान।
परिसंबाद
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