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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
टीका - महासुखराग दाहयुक्तो अग्निः । डोम्बी परिशुद्धावधूती गृहे लग्नः । तेन महासुखरागाग्निना मया सकलविषयादिवृन्दाश्रयो दग्धः । (चर्यागीति० पृ० १५४-५५ ) भुसुकपाद ने भी कहा - णिअ धरिणी चण्डाली लेली । टीकाकार ने चण्डाली अपरिशुद्धा अवधूती वायुरूपा कहा है । वही पृ० १५८
१५३
'ब्रह्मविहार' और 'बोधिचित्त' के साथ 'ज्वलिता चण्डाली नाभौ' आदि सिद्धाचार्य के पद इस प्रकार से सम्बन्धित हैं । व्यक्ति और समाज के विकास के आधार पर इन तीनो चैतसिकों की स्थिति के बारे में दो चार शब्द कहना आवश्यक है ।
ब्रह्मविहार की भावना में मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा हैं । ये उच्चकोटि की समापत्तियाँ विरागात्मक साधना नहीं है । आपाततः भिक्षु विनय के अनुसार अनुशासन के आधार पर भिक्षु जीवन में वैयक्तिक संयम और साधना का परिपोषण है । परन्तु वह निषेध गूढ़तया सर्वसत्त्वों के हित और सुख के लिए प्रयोग किया जाय। इस प्रसंग में परमपावन श्रद्धेय दलाई लामा जी ने अपने ग्रन्थ
स्पष्ट किया है ।
"In Highest Yoga, the methods for firming the mind are to meditate on a salutory object within the context of not allowing bad thoughts to be generated, and along with this to concentrate on important places in the body. Through these methods the Highest yoga path is faster than the other, and this is due to the fact that the mind depends on the body, one concentrates on the channels, in which mainly blood, mainly semen or only currents on energy (wind) flow. Then since currents of energy cause the mind to move to objects, a yogi reverses this currents and thus there is nothing to stir the mind, the mind does not stir or move to other objects."
उपर्युक्त वचन में यह सिद्ध है कि उच्चकोटि के योगी का चित्त संकीर्ण आत्मभाव से बाहर है । अनुत्तर योग से सिद्ध योगी का चित्त विषयविकल्प में प्रक्षोभित न होने के कारण अपने लाभ या क्षति, मान या अपमान, जय या पराजय की बात छोड़कर सदा ही सत्त्वों के कल्याण और हितसाधन में व्यस्त होता है । यह बोधिधर्म है । अपनी योगशक्ति के द्वारा आत्मभाव तथा स्वार्थ बुद्धि हट जाती
परिसंवाद - २
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