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व्यष्टि एवं समष्टि के सन्दर्भ में ब्रह्मविहार, बोधिचित्त और ज्वलिता चण्डाली
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दरिद्राणां च सत्त्वानां निधिः स्यामहमक्षयः । नानोपकरणाकारैरुपतिष्ठेयमग्रतः ॥९॥ अनाथानामहं नाथः सार्थवाहश्च यायिनाम्। पारेप्सूनां च नौभूतः सेतुः संक्रम एव च ॥ १७ ॥ दीपार्थिनामहं दीपः शय्या शय्यार्थिनामहम्।
दासार्थिनामहं दासो भवेयं सर्वदेहिनाम् ॥ १८॥ इसलिए वे बोधिसत्त्व हैं, जिन्हें बोधिचित्तोत्पाद की चित्तावस्था उपलब्ध है। वे इस प्रकार से अपना सब कुछ त्यागकर सकल सत्त्वों के लिए बैठते हैं।
आत्मभावांस्तथा भोगान् सर्वत्र्यध्वगतं शुभम ।
निरपेक्षस्त्यजाम्येष सर्वसत्त्वार्थसिद्धये ॥ बोधि० ३।१० ॥ शिक्षासमुच्चय में यह भावना स्पष्टीकृत है । (९ परि० १८० पृ०)
यत् काये छिद्यमाने सर्वसत्त्वान् मैत्र्या स्फरति, वेदनाभिश्च न संह्रियते । यत् काये छिद्यमाने य
एवास्य कायं छिन्दति तेषामेव प्रमोक्षार्थ क्षमते ॥ बोधिचित्त का स्वरूप बोधिचर्यावतार में वैसा है।
भवदुःखशतानि तत्कामैरपि सत्त्वव्यसनानि हर्तुकामैः। बहुसौख्यशतानि भोक्तुकामै विमोच्यं हि सदैव बोधिचित्तम् ॥
योगिचित्त में इस बोधिचित्तोत्पाद के लिये बोधिचर्या आवश्यक है। यह लौकिक होने पर भी लोकोत्तर सिद्धि है। जहाँ पर क्रिया, चर्या, योग और अनुत्तर योग का संयोग एकत्र मिलता है । बौद्धयोग और साधना में यह विशेष महत्त्वपूर्ण है। ज्वलिता चण्डालो
कमलकूलिश माझें भवइ ले ली।
समताजोएँ जलिल चण्डाली ॥ धामपाद की चर्यागीति के व्याख्यान में टीकाकार ने कहा
"परमकरुणामैत्रिकमानसः सिद्धाचार्यो धामपादो हि प्रतिपादयति । कमलकुलिशमित्यादि। प्रज्ञोपायसमतायां सत्याक्षरमहासुखरागानलवर्तन्नाभौ निर्माणचक्रे चण्डाली ज्वलिता मम।
. डाह डोम्बी घरे लागेलि आगि (णी)। .. . .... . ससहर लइ. सिंञ्चहुँ पाणी ॥ . .
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