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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं हई है । जिसके क्षेत्र में पशु, पक्षी और वनस्पति जगत् भी सम्मिलित है। भारत की राष्ट्र उपासना जिस सार्वजनीन कल्याण बुद्धि को लेकर हुई है उसे राग, द्वेष और प्रतियोगिता की भावना पर प्रतिष्ठित आज के लोग नहीं समझ सकते।
व्यक्तिपूजा से समाजसेवा को श्रेष्ठ समझा गया और तथागत भी स्वयं पूजित हुए, संघ की पूजा के द्वारा' ही । सर्वलोकहित ही भारतीय चिन्तन का गन्तव्य स्थान रहा । भवतु सब्ब मंगलं की भावना हमारे सामाजिक जीवन को सदा प्रेरणा देती रही । परस्पर एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुम परम कल्याण को पाओगे, ऐसी सामाजिक अनुभूति सम्भवतः भारत में ही सर्वप्रथम की गई। इसी आधार पर हमारी आध्यात्मिक संस्कृति का शिलान्यास हुआ। कालान्तर में इसी के अव्यवस्थित और विकृत हो जाने पर चारों वर्णों की शुद्धी के द्वारा सम्यक् सम्बुद्ध ने विशुद्धिकरण का प्रयत्न किया तथा सभी दिशाओं को मैत्रीभावना की विमल धारा से आप्लावित करने का सन्देश दिया। मित्र की दृष्टि से ही सभी को देखा गया तथा कभी कोई दुःख न पाये इसके लिए प्रयत्न किया गया। मैत्री और सर्वकल्याणमयी वृत्ति के लिए बुद्धशासन में जो महत्वपूर्ण स्थान दिया गया, उसके विषय में अधिक कहने की आवश्यकता ही नहीं है । क्योंकि तथागत संक्षेपतः अहिंसा को ही धर्म कहते हैं। मैं अपनी इस जीवन विधि से किसी को भी हानि न पहुँचाऊँ, न चर को, न अचर को यही भगवान् तथागत की सदा भावना रहती थी। और ऐसा ही करने के लिए उन्होंने उपदेश दिया। भगवान बुद्ध के समान अनुकम्पा करने वाले अन्य शास्ता जगत् में बहुत कम हुए। जिस करुणामय बुद्ध ने अंगुलीमाल डाकू को भी आ भिक्षु कहकर सम्बोधित किया, और अम्बपाली गणिका के यहाँ भोजन स्वीकार कर उसे कृतार्थ किया। उस समदर्शी महात्मा के लिए धर्म सारिपुत्र का यह कथन सर्वथा उपयुक्त था "भगवान् बुद्ध अपनी हत्या करने पर तुले देवदत्त के प्रति, चोर
१. सङ्घ ते दिन्ने अहं चेव पूजितो भविस्सामि सङ्घो चाति । पब्बज्जा सुत्त० २. न जच्चा बसतो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो, कम्भुना वसलो होति कम्मुना होति ___ ब्राह्मणो । ध० ५०; बिज्जाचरण सम्पन्नो सो सेट्ठो देव मानुसो । अ० सु० दी० नि० ३. मैत्री चित्त के लिए द्र० मि० प० (ओपम्मवग्गा) महाराहुलोवाद सुत्त, दीघ नि० । ४. धर्म समासतोऽहिंसा वर्णयन्ति तथागताः। चतुःशतक । सर्वेषु भूतेषु दया हि धर्मः।
बु० च० (९।१७)। ५. इमायाह इरियाय न किञ्चि व्यावाधेमि, तसं वा थावरं वा (वितक्क सु० इति बु० ६. अंगुलिमाल सु० (म० नि० २।४।६) ७. परिनिब्बान सु० (दी० नि०)
परिसंवाद-२
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