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व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्धों की अवधारणा
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अंगुलीमाल के प्रति, धर्मपाल हाथी के प्रति और पुत्र राहुल के प्रति भी समान बुद्धि रखते थे' | मैत्री विहार को चार आर्य विहारों में प्रतिष्ठित कर भगवान् ने उसके स्वरूप की व्यापकता दी जो भारतीय दर्शन में एक मौलिक विचार है । भिक्षुओं यदि चोर डाकू दोनों ओर वाले - अरे से तुम्हारे एक अंग को काटे, वहाँ पर भी जो मन दूषित करे वह मेरे शासन के अनुकूल आचरण करने वाला नहीं है । मैत्रीभावना के रहते मनुष्य के मल नष्ट न हो जाय, यह कभी सम्भव नहीं है । क्योंकि आवुसो ! मैत्री चित्त विमुक्ति व्यापाद का निस्सरण है । अतः सद्धर्म में प्रतिष्ठित भिक्षु मित्रभावयुक्त चित्त से एक दिशा को पूर्ण करके विहरता है, दूसरी दिशा, तीसरी दिशा, चौथी दिशा, इसी प्रकार उपर-नीचे - दाय-बायें सम्पूर्ण मन से, सबके लिए, सारे लोक को मित्रभावयुक्त विपुल, महान् अपरिमाण, वैर रहित, द्रोह रहित चित्त से स्पर्श करता, विहरता है । इस प्रकार तथागत ने अबैर से ही बैर की शान्ति का उपदेश देकर भिक्षुओं को प्राणीहिंसा से विरत रहने का अनुशासन कर अनेक उपदेशों में मैत्री विहार की ही प्रशंसा कर बहुजनों के हित सुख और कल्याण के लिए देव और मनुष्यों पर अनुकम्पा कर भिक्षुओं को चारो दिशाओं में विचरण करने का उपदेश दिया । वे स्वयं भी सम्यक् सम्बोधि प्राप्त करने के समय से लेकर अपने परिनिर्वाण के अन्तिम क्षणों तक अमृतोपम धर्मोपदेश करते हुए सदा लोकहित
१. बधके देवत्तम्हि चोरे अंगुलिमालके, धनपाल राहुले च सब्बत्थ समको मुनि । (मि० प ओपम्भकथा) एकं च बाहं वासिया तच्छेय्य कुपितमानसा एकं च बाहं गन्धेन ओलिम्पेय्य पमोदिता । अमुस्मि पटिघो नत्थि रागो अस्मि न विज्जति । पठवी समचित्ता ते तादिसा समणा ममाति । भि० प० ( ओपम्भ कथा ) |
२. द्र० महाराहुलोपाद सु० (म० नि० )
३. महाहत्थिपदोपम सु० (म० नि० १|३|८ | )
४. महाराहुलोवाद सुत्त (म० नि०) बुद्धचर्या ५०३ ।
५. महाराहुलोवाद सु० (म० नि०) तेविज्ज सुत्त ( दी ० नि० )
६. नहि वेरेन वेनि सम्मन्तीध कुदाचनं, अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो । ध० प० १६ | ध० प० १।३ । ध० प० २६।८ ।
७. भिक्खु पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति । तेविज्ज सुत्त ( दी० नि० )
८. मेत्तसुत्त (सु० नि०) कालाम सु० (अं० नि० ) तेविज्ज सुत्त ( दी० नि० ) ।
९. चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ति ।
देसेr भिक्खवे धम्मं आदि कल्याणं मज्झे कल्याणं परियोसान कल्याणं सात्थं सव्यञ्जनं केवलं परिपुर्ण ब्रह्मचरियं पकासेथ । ( महावग्ग )
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परिसंवाद - २
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