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व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्धों की अवधारणा
डॉ० ब्रह्मदेवनारायण शर्मा
व्यक्ति, समाज एवं उनके सम्बन्धों पर भारतीय मनीषियों ने अत्यन्त प्राचीन काल से विचार करना प्रारम्भ किया था और आज भी वह विचार का विषय बना है । क्योंकि यह एक अत्यन्त गहन प्रश्न है जिस पर सोचना, समझना तथा विचार करना आवश्यक ही नहीं अत्यन्त उपयोगी है । व्यक्ति और समाज को सुन्दर सुव्यवस्थित और आदर्श मार्ग पर प्रतिपन्न कराना भारतीय ऋषियों एवं चिन्तकों का परम कर्त्तव्य रहा है । जबतक व्यक्ति आदर्शों से युक्त नहीं होगा, तबतक समाज भी आदर्श नहीं बन सकता और समाज के पथभ्रष्ट हो जाने पर सारी मानवता पतन के गर्त में गिर सकती है । जब-जब समाज में पथभ्रष्टता, लोलुपता, निरंकुशता एवं अनैतिकता का प्रचार प्रसार हुआ, तब तब भारतीय महर्षियों ने अपनी पैनी दृष्टि एवं सूक्ष्म प्रज्ञा से आदर्श समाज की कल्पना की । फलस्वरूप दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, साहित्य एवं समाजशास्त्र आदि का सृजन हुआ । दर्शन ने सर्वकल्याण की चेतना को उदय कर उसको आध्यात्मिक धरातल दिया, नीतिशास्त्र ने उसे नैतिक मूल्य प्रदान किया, साहित्य ने उसे कोमल एवं मनोहर भाव प्रदान किए तथा समाजशास्त्र ने व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को उजागर किये । इस प्रकार भारतीय चिन्तकों ने व्यक्ति और समाज को एक ऐसा मूल्य प्रदान किया जिससे व्यक्ति समाज को तथा समाज व्यक्ति को सुख-सुविधा प्रदान कर सके। इस सन्दर्भ में दर्शन की क्या भूमिका रही है यह द्रष्टव्य है । भारतीय दर्शन सबकी मंगल कामना से प्रवर्तित होता है । न केवल मानव समाज वरन् प्राणिमात्र का मंगल उसका प्रमुख विषय है ।
ऋषि महात्माओं के द्वारा जिस अध्यात्म विद्या की शिक्षा दी गई, वह अपने व्यवहार पक्ष में मैत्री एवं करुणा से सदा ही बँधी रही। सभी प्राकृतिक भूतों और मानव तथा पशु एवं वनस्पति जगत् के साथ भी भारत में सदा शान्ति और समन्वय का ही व्यवहार रहा है। सभी स्थावर और जंगम प्राणियों को वह मैत्रीभावना से ओत-प्रोत करता रहा है तथा उनके साथ पारस्परिक सामंजस्य और कल्याण की भावना की स्थापना में ही उसने परमार्थ के दर्शन किये हैं । समन्वय, त्याग, वैराग्य आदि धर्म भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र रहे हैं। जिनकी सामाजिक अभिव्यक्ति कभी संकुचित राष्ट्रीयता के रूप में न होकर सदा व्यापक तथा विश्वजनीनता के रूप में
परिसंवाद - २
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