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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ विशेष का अधिकार न होकर पूरे समाज का अधिकार होता है। इसके अतिरिक्त संघ के आधार पर स्थापित समष्टि की सामाजिक दशा भी अनुपम अर्थात् मनोरम होती है। इस प्रकार की समष्टि में जाति विशेष का नाम नहीं रहता है अर्थात् जातिविहीन समष्टि का उद्भव होता है, जिसकी कल्पना हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी की थी। धार्मिक दृष्टि से भी वह विकसित एवं स्वस्थ समाज होता है । इस प्रकार के समाज में किसी विशेष धर्म की प्रधानता नहीं होती है। लोग बाह्य आडम्बर से अलग रहते हैं। वे मूर्तिपूजा, ईश्वर आदि में विश्वास न करके अपने कुशल कर्मों पर विश्वास करते हैं क्योंकि कर्म ही सुख-दुःख का कारण होता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बुद्ध के उपदेशों के आधार पर हर दृष्टि से विकसित व्यष्टि द्वारा एक स्वस्थ एवं सर्वाङ्ग विकसित समष्टि अर्थात् समाज का निर्माण किया जा सकता है।
पारसवाद-२
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