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विमलकीर्तिनिर्देशसूत्र के अनुसार व्यष्टि एवं समष्टि का सम्बन्ध त्यों-त्यों बुद्धक्षेत्र की परिशुद्ध होती है।" व्यष्टि की परिशुद्धि पर समष्टि की परिशुद्धि निर्भर है। व्यष्टि की परिशद्धि ही समष्टि की परिशुद्धि है क्योंकि व्यष्टि एवं समष्टि दो नहीं एक ही है। प्राचीन सूत्रों में इसी विचार को दूसरे शब्दों में व्यक्त किया गया है । धम्मपद १८३ में कहा है
"सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा।
__ सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धानं सासनं ॥" स्वचित्तपरिशोधन होने से समस्त बुराइयाँ गायब हो जाती हैं और सभी अच्छाइयाँ जुट जाती हैं। यही बौद्धमत का सार है। इसी स्वचित्तपरिशुद्धि की प्रक्रिया से संसार का कल्याण हो सकता है और इसी पद्धति से व्यष्टि एवं समष्टि का द्वयभाव समाप्त हो सकता है। अतएव एक बार पुनः यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि स्वचित्तपरिशोधन वहीं सम्यक् प्रकार से कर सकता हैं जिसने स्व-भाव को धारणा का प्रहाण करके संसार का सच्चा स्वरूप पहिचान लिया है। संसार का सच्चा स्वरूप अथवा स्वभाव यह है कि इसमें "स्व" एवं "पर" का भेद नहीं है, यह निःस्वभाव है। स्वयं अपने को निःस्वभाव जानकर और संसार को निःस्वभाव जानकर जो संसार में बुद्धकार्य करता है उसके लिए यह संसार बुद्धक्षेत्र है।
परिसंवाद-२
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