________________
204
Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
पश्चात्काल में संस्कृत के काव्य तथा अन्य विषय के ग्रन्थों में पशुहिंसा का समावेश कर दिया गया । वेद के अर्थों में उनके पदों की मनमानी व्युत्पत्ति के द्वारा हिंसात्मक विवेचन किया गया और यज्ञों में पशुओं की हिंसा होने लगी। इसी हिंसा व्यवस्था को देख कर अहिंसक मतों - जैन-बौद्ध आदि का प्रवर्तन हुआ । योगदर्शन में तो अहिंसा को अष्टांगयोग के प्रथम सोपान 'यम' के प्रथम अवयव के रूप में गृहीत कर लिया
गया ।
पतंजलि के योगदर्शन के अष्टांग योग में चित्त वृत्ति के निरोध तथा फल-स्वरूप समाधि और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अपने आचरण में साधक के द्वारा 'अहिंसा' का ही सर्वप्रथम आश्रयण किया जाता है । 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः १८ चित्तवृत्ति के निरोध के लिए आवश्यक अष्टांग योग के " यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो." २० जैन ऽष्टावङ्गानि " १९ और यम के तत्त्व हुए " अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ' दर्शन में भी इन्हीं अथवा अन्य नामों को संयुक्त करके ये ही पंच महाव्रत परिगणित, व्यवहृत तथा अनुष्ठित हुए हैं ।
इन महाव्रतों (धर्मों-गुणों) को सिद्ध करने में अभ्यास आवश्यक है। इसके लिए पतंजलि ने बतलाया है कि यम और नियम के विरोधी भावों के उपस्थित होने पर उनके प्रतिपक्षी विचारों का बार-बार चिन्तन करना चाहिए। सूत्र यों है : 'वितर्कबाधने - प्रतिपक्ष भावनम् । जब मन में हिंसा आदि करने के लिए क्रोध की बड़ी तरंग आये, तो उसे कैसे वश में लाया जाय ? उसके विपरीत एक तरंग उठाकर । उस समय प्रेम की बात मन में लायी जाय। कभी-कभी ऐसा होता है कि पत्नी अपने पति पर खूब नाराज हो जाती है, उसी समय उसका बच्चा वहाँ आ जाता है और वह उसे गोद में उठाकर चूम लेती है, उससे उसके मन में बच्चे के प्रति प्रेम- तरंग उठने लगती है और पहले की तरंग को दबा देती है। प्रेम क्रोध के विपरीत है ।
इसी प्रकार जब मन में चोरी का भाव उठे, तो चोरी के विपरीत भाव का चिन्तन करना चाहिए । जब दान ग्रहण करने या किसी की वस्तु को लेने का विचार मन में आये, तो उसके विपरीत भाव का चिन्तन मनमें किया जाय। उसके शमन अर्थात् वितर्क, उसके प्रकार, फल, उसके शमन आदि का विचार निम्नलिखित सूत्र में किया गया है ।
मैं अर्थात् मैं स्वयं कोई झूठ कहूँ, तो उससे जो पाप होता है, उतना ही पाप तब भी होता है, जब मैं दूसरे से झूठ बात कहलवाता हूँ, अथवा दूसरे की झूठ बात का अनुमोदन करता हूँ । वितर्क अर्थात् योग के विरोधी हैं, हिंसा आदि भाव; वे तीन प्रकार के होते हैं— लोभ, क्रोध, मोह, और इनमें भी कोई थोड़े परिमाण का, कोई मध्य परिमाण का और कोई बहुत बड़े परिमाण का होता है; इनके अज्ञान और क्लेशरूप अनन्त फल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org