________________
180
Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
क्षीणमोह
खीणमोह (छदुमत्थो वेदगो)
खीणमोहे
क्षीणमोह
जिन
सजोगी केवली
सयोगी केवली
जिणकेवली सव्वण्हू-सव्वदरिसी (ज्ञातव्य है किं चूर्णि में 'सजोगिजिणो' शब्द है मूल में नहीं है।)
चूर्णि में योगनिरोध का | उल्लेख है
-
इस तुलनात्मक विवरण से हम पाते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के समान ही कसायपाहुडसुत्त में न तो गुणस्थान शब्द ही है और न गुणस्थान-सम्बन्धी १४ अवस्थाओं का सुव्यवस्थित विवरण ही है, किन्तु दोनों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द पाये जाते हैं। कसायपाहुड में गुणस्थान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द हैं-मिथ्यादृष्टि; सम्यक्मिथ्यादृष्टि मिश्र, अविरत सम्यक्दृष्टि, देशविरत विरताविरत, संयमासंयत, विरतसंयत, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह । तुलना की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक् मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अनुपस्थित है, जबकि कसायपाहुडसुत्त में इसपर विस्तृत चर्चा उपलब्ध है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की 'अनन्तवियोजक' की अवधारणा कसायपाहुड में उपलब्ध नहीं है । उसके स्थान पर उसमें दर्शनमोह-उपशमक की अवधारणा पाई जाती है। तत्त्वार्थसूत्र की उपशमक, उपशान्त, क्षपक और क्षीणमोह की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से कसायपाहुडसुत्त में चारित्रमोह-उपशमक, उपशान्तकषाय और चारित्र-मोह क्षपक तथा क्षीण-मोह के रूप में यथावत् पाई जाती हैं। यहाँ ‘चारित्र-मोह' शब्द का स्पष्ट प्रयोग इन्हें तत्त्वार्थ की अपेक्षा अधिक स्पष्ट बना देता है। पुनः कसायपाहुडा सुत्त मूल में भी तत्त्वार्थसूत्र के समान ही प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण—ये चारों नाम अनुपस्थित हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा इसमें सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र = मिसग) और सूक्ष्म-सम्पराय (सुहुमराग, सुहमसंपराय) ये दो विशेष रूप से उपलब्ध होते हैं। पुनः उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच दोनों ने क्षपक (खवग) की उपस्थिति मानी है, किन्तु गुणस्थान-सिद्धान्त में ऐसी कोई अवस्था नहीं है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कसायपाहुड और तत्त्वार्थसूत्र में कर्म-विशुद्धि की अवस्थाओं के प्रश्न पर बहुत अधिक समानता है। मात्र मिश्र और सूक्ष्मसम्पराय की उपस्थिति के आधार पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org