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अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण
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है, किन्तु वह अनेक भी है; क्योंकि प्रमाणानुसार वह सप्रतिपक्ष है। दूसरे सत् के अनेक होने में यह युक्ति है कि द्रव्यादि की अपेक्षा अखण्डित होने पर भी सत् इसलिए अनेक है, क्योंकि व्यतिरेक के बिना अन्वय पक्ष अपने पक्ष की रक्षा नहीं कर सकता। गुण का लक्षण भिन्न है और पर्याय का भिन्न। अपने-अपने लक्षण के अनुसार गण भी है और पर्याय भी है। अत: गुण और पर्याय नियम से अनेक है, तो द्रव्य की अपेक्षा सत् अनेक कैसे नहीं होगा। जो सत् एक देश में है, वह उसी देश में है, दूसरे देशों में नहीं है। इसी प्रकार दूसरे देश में जो सत् है, वह उसी देश में है, अन्य देश में नहीं है। अत: ऐसा कौन पुरुष है जो क्षेत्र की अपेक्षा सत् को अनेक नहीं मानेगा। जो सत् एक काल में है, वह उसी काल में है, उससे भिन्न दूसरे काल में नहीं। इसी प्रकार जो सत् अन्य काल में है, वह उसी काल में है, उससे भिन्न काल में नहीं है। अत: काल की अपेक्षा भी सत् नियम से अनेक है। सत्मात्र होने से जो एक भाव है, वह अन्य भाव रूप नहीं हो सकता है। इसी प्रकार जो अन्य भाव है, वह उसी रूप ही है, अन्य रूप नहीं हो सकता, अत: भाव की अपेक्षा सत् नियम से अनेक है। वस्तु में अन्वय-व्यतिरेक की सिद्धि -
सभी पदार्थ विधि और निषेध रूप भाव से युक्त हैं। यदि इन दोनों में से किसी एक का लोप माना जाता है तो उससे भिन्न दूसरे भाव को भी लुप्त होने की आपत्ति आती है। विधि और निषेध में से किसी एक के नहीं मानने पर शेष दूसरे के अभाव का प्रसङ्ग आता है। यदि वस्तु केवल अन्वय रूप है ऐसी प्रतीति मानी जाय तो वह व्यतिरेक के अभाव में अन्वय की साधक कैसे हो सकती है?३८।
सत् द्वैत रूप होकर भी कथञ्चित् अद्वैत रूप ही है, इसलिए जब विधि की विवक्षा होती है, तब वह विधिमात्र प्राप्त होता है और जब निषेध की विवक्षा होती है, तब वह निषेधमात्र प्राप्त होता है। ऐसा नहीं है कि कुछ भाग विधिरूप है और उससे बचा हुआ कुछ भाग निषेध रूप है; क्योंकि ऐसे सत् की सिद्धि में साधन का मिलना तो दूर रहा, उसमें द्वैत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है; क्योंकि वह अशेष विशेषों से रहित माना गया है। वस्तु में मुख्य-गौण की विवक्षा आचार्य समन्तभद्र ने कहा है -
विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते । तथा ऽरिमित्रा ऽनुभयादिशक्ति द्वयाऽवधे: कार्यकरं हि वस्तु ।।
स्वयम्भूस्तोत्र ११/३
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