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Multi-dimensional Application of Anekāntavăda
इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से होने वाली परिणाम स्वरूप अर्थक्रिया का सद्भाव पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करता है। पदार्थों में सादृश्य को बतलाने वाला अनवृत्त प्रत्यय है, जैसे - यह गौ है, यह भी गौ है, इत्यादि अनेक पदार्थों में समानता का ज्ञान होने से तथा पृथकपना बतलाने वाला व्यावृत्त प्रत्यय अर्थात् यह गौ श्याम है, धवल नहीं है, इत्यादि व्यावृत्त प्रतिभास होने से पदार्थों में सामान्य और विशेषात्कमकपना सिद्ध होता है, जो जिस आकार से प्रतिभासित होता है, वह उसी रूप देखा जाता है, जैसे नीलाकार से प्रतिभासित होने के कारण नील स्वभाव वाला पदार्थ है, ऐसा माना जाता है। सामान्य आकार का उल्लेखी अनुवृत्त प्रत्यय और विशेष आकार का उल्लेखी व्यावृत्त प्रत्यय सम्पूर्ण बाह्य अचेतन पदार्थ एवम् आभ्यन्तर चेतन पदार्थों में प्रतीत होता ही है, अत: वे चेतन-अचेतन पदार्थ सामान्य विशेषात्मक सिद्ध होते हैं। पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करने के लिए अकेला अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय ही नहीं है, अपितु पूर्व आकार का त्याग रूप व्यय, उत्तर आकार की प्राप्ति रूप उत्पाद और दोनों अवस्थाओं में अन्वय रूप से रहने वाला ध्रौव्य पदार्थों में पाया जाता है, इस तरह की परिणामस्वरूप अर्थक्रिया का सद्भाव भी उनमें पाया जाता है, इन हेतुओं से पदार्थ की सामान्य-विशेषात्मकता सिद्ध होती है। एक ही द्रव्य अनेक कैसे बनता है
आचार्य सिद्धसेन ने कहा है - एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया वयणपज्जया वा वि । तीयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥
सन्मति प्रकरण-३१ अर्थात् एक द्रव्य के भीतर जो अतीत, वर्तमान और अनागत अर्थपर्याय तथा शब्द अर्थात् व्यञ्जनपर्याय होते हैं, वह द्रव्य उतना होता है।
कोई भी परमाणु जीव आदि मूल द्रव्य वस्तुतः अखण्ड होने से व्यक्ति के रूप में भले ही एक हो, परन्तु उसमें तीनों कालों के शब्द पर्याय और अर्थपर्याय अनन्त होते हैं। इसलिए वह एक द्रव्य भी प्रतिपर्याय अर्थात् पर्यायभेद से भिन्न-भिन्न होते हुए भी समान होने से और भिन्न-भिन्न माना जाने से पर्यायों की संख्या के अनुसार अनन्त बनता है अर्थात् अमुक एक पर्याय सहित उस द्रव्य की अपेक्षा दूसरे विवक्षित पर्याय सहित वह द्रव्य उसकी अपेक्षा तीसरे विवक्षित पर्याय सहित वह द्रव्य भिन्न है। इस तरह विशेष्यभूत द्रव्य के एक होने पर भी विशेषणभूत पर्यायों के भेद के कारण उसे भिन्न-भिन्न मानने पर वह जितने पर्याय होते है, उतनी संख्या वाला बनता है३६|
पञ्चाध्यायीकार के अनुसार यद्यपि सत् एक है, तथापि वह सर्वथा एक नहीं
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