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________________ अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण 401 और पर्यायर्थिक नय की अपेक्षा अनित्य हैं। इसी प्रकार उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य (स्थिरता) स्वरूप होने से आकाश भी नित्य और अनित्य इन दोनों ही धर्मों का धारक है। आकाश अवकाश को देने वाला है। उसमें रहने वाले जीव तथा पुद्गल किसी दूसरे की प्रेरणा से अथवा अपने स्वभाव से आकाश के प्रदेश से दूसरे आकाश के प्रदेश में गमन करते हैं, तब उस आकाश का उन रहने वाले जीव और पुद्गलों के साथ एक प्रदेश में तो विभाग होता है और दूसरे प्रदेश में संयोग होता है। संयोग तथा विभाग ये दोनों परस्पर विरोध रखने वाले धर्म हैं अर्थात् जहाँ संयोग रहता है, वहाँ विभाग नहीं रह सकता है। इसलिए जब संयोग और विभाग में भेद हुआ अर्थात् संयोग जुदा और विभाग जुदा रहा तो धर्मी जो आकाश है, उसके भी अवश्य ही भेद हए। जैसे घट और पट में यही भेद है कि घट तो जल लाने आदि रूप धर्मों को धारण करता है और पट शीत से बचाने आदि रूप धर्मों को धारण करता है। यही इन दोनों भेद का कारण है। घट तो मिट्टी के पिण्ड आदि रूप कारणों से उत्पन्न होता है और पट तन्तु आदि कारणों से उत्पन्न होता है। जब धर्मों के भेद से धर्मी में भेद हुआ तो वह आकाश पूर्व पदार्थ का जो संयोग था उस संयोग से विनाश रूप परिणाम को धारण करने से नष्ट हुआ और दूसरे प्रदेश में जो पुद्गल का संयोग हुआ, इस कारण उस संयोग के उत्पाद (उत्पत्ति) नामक परिणाम को अनुभवन (धारण) करने से वह आकाश उत्पन्न हुआ और आकाश द्रव्य उन दोनों विनाश और उत्पाद रूप अवस्थाओं में द्रव्य रूप से अनुगत चला आ रहा है अर्थात् विद्यमान है, उसका नाश नहीं हुआ है, इसलिए उत्पाद और व्यय इन दोनों का एक आकाश ही अधिकरण अर्थात् रहने का स्थान है। इस प्रकार आकाश में नित्य तथा अनित्य ये दोनों धर्म सिद्ध हुए। पर्याय की नित्यानित्यता द्रव्य पर्याय से तन्मय रहता है। अत: जब पर्याय को गौणकर द्रव्य को प्रधान बनाया जाता है तब अनित्य तत्त्व नित्यत्व को प्राप्त होता है और जब द्रव्य को गौणकर पर्याय को प्रधानता दी जाती है तब नित्य तत्त्व अनित्यत्व को प्राप्त होता है। पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है ____ आचार्य मणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में कहा है- सामान्य विशेषात्मा तदर्थों विषय, ‘अर्थात् सामान्य और विशेष धर्मों से युक्त ऐसा जो पदार्थ है, वही प्रमाण का विषय है अर्थात् प्रमाण के द्वारा जानने योग्य पदार्थ है। पदार्थों में अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय होते हैं एवं पूर्व आकार का त्याग और उत्तर आकार की प्राप्ति एवं अन्वयी द्रव्य रूप से ध्रुवत्व देखा जाता है। इस तरह की परिणाम स्वरूप अर्थक्रिया देखी जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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