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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
उत्पाद आदि की परस्पर सापेक्षता
उत्पाद आदि के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं, अत: इनमें कथञ्चित् भेद है। ये कभी भी वस्तु से भिन्न या परस्पर भिन्न उपलब्ध नहीं होते, एक वस्तु के उत्पाद आदि को दूसरी वस्तु में नहीं ले जा सकते, अत: ये अभिन्न हैं। उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं; क्योंकि इनके लक्षण ही भिन्न-भिन्न हैं, जैसे रूप, रस आदि के लक्षण भिन्न-भिन्न होने से उनमें परस्पर भेद है, उसी तरह लक्षण भेद से उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य में भी भेद है। उत्पाद, विनाश आदि का लक्षणभेद असिद्ध नहीं है; क्योंकि उनके भिन्न-भिन्न लक्षण हैं। जो पदार्थ पहले नहीं है, असत् है उसके स्वरूप लाभ हो जाने को उत्पाद कहते हैं। विद्यमान पदार्थ की सत्ता का च्युत हो जाना, उसकी सत्ता का वियोग होना विनाश है। इन उत्पाद और विनाश के होते हुए भी द्रव्य रूप से अन्वय रहना ध्रौव्य है। इस तरह उत्पादादि के असाधारण लक्षण सभी के अनुभव में आते हैं। ये उत्पादादि लक्षणभेद से कथंचित् भिन्न होकर भी परस्पर सापेक्ष हैं, एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। ये परस्पर निरपेक्ष होकर अत्यन्त भिन्न नहीं हैं। यदि ये परस्पर निरपेक्ष तथा अत्यन्त भिन्न हो जायेंगे तो इनका गधे के सींग की तरह अभाव हो जायेगा। जैसे- अकेला उत्पाद सत् नहीं है; क्योंकि वह स्थिति और विनाश से रहित है, जैसे कि कछवे के रोम। अकेला विनाश सत् नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वह उत्पत्ति और स्थिति से रहित है, जैसे कि कछवे के रोम। स्थिति अकेली सत नहीं है; क्योंकि वह उत्पाद और विनाश से रहित है, जैसे कि कछवे के रोम। इस तरह परस्पर सापेक्ष ही उत्पादादि सत् हो सकते हैं तथा वस्तु में भी इनकी परस्पर सापेक्ष सत्ता है। द्रव्य से उत्पाद और व्यय का भिन्नाभिन्नत्व
द्रव्य से व्यय और उत्पाद सर्वथा अभिन्न नहीं हैं। यदि अभिन्न माना जाय तो ध्रौव्य का लोप हो जायगा। कथञ्चित् व्यय और उत्पाद के समय भी द्रव्य स्थिर रहता है, अत: दोनों में भेद है और द्रव्यजाति का परित्याग दोनों नहीं करते, उसी द्रव्य के ये होते हैं, अत: अभेद है। यदि सर्वथा भेद होता तो द्रव्य को छोड़कर उत्पाद और व्यय पृथक् मिलते और सर्वथा अभेद पक्ष में एक लक्षण होने से एक का अभाव होने पर शेष के अभाव का भी प्रसङ्ग आता२६।। तत्त्व कथञ्चित् तद्रूप और कथंचित् अतद्रूप है
आचार्य समन्तभद्र ने सुविधि जिन की स्तुति में कहा है कि हे सुविधि जिन। आपका वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप (सद्रूप) है और कथंचित् तद्रूप नहीं (अतद्रूप) है; क्योंकि स्वरूप-पररूप की अपेक्षा उसके द्वारा वैसी ही सत् असत् रूप की प्रतीति होती है। स्वरूपादि चतुष्टय रूप विधि और पररूपादि-चतुष्टय रूप निषेध में अत्यन्त
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