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अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण
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(सर्वथा) भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है; क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता मानने पर शून्य दोष आता है।
प्रत्येक तत्त्व स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत् है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से असत् है। जिस प्रकार तत्त्व स्वरूप आदि की अपेक्षा सत् है, उसी प्रकार पर रूप आदि की अपेक्षा से भी सत् हो तो चेतन और अचेतन में कोई भेद ही नहीं रहेगा। यदि तत्त्व परद्रव्य आदि की अपेक्षा की तरह स्वद्रव्य आदि की अपेक्षा से भी असत् हो तो सब तत्त्व शून्य हो जायेंगे।
पदार्थ को कथंचित् सदसदात्मक सिद्ध करने में अन्य युक्तियाँ भी दी जा सकती हैं। पदार्थ कथंचित् सदसदात्मक हैं; क्योंकि सब पदार्थ सब पदार्थों के कार्य को नहीं कर सकते।
शीत से रक्षा करना, शरीर का आच्छादन करना आदि पट का कार्य है और कूप से पानी निकालना, पानी भरना आदि घट का कार्य है। पट का जो कार्य है, उसको घट नहीं कर सकता है; क्योंकि घट घटरूप से सत् है, पटरूप से नहीं। यदि घट पटरूप से भी सत् होता हो तो उसे पट का काम करना चाहिए था। यही बात सब पदार्थों के विषय में है। सब पदार्थ अपना-अपना कार्य करते हैं, दूसरों का नहीं। इससे सिद्ध होता है कि सब पदार्थ स्वरूप की अपेक्षा से सत् हैं और पररूप की अपेक्षा से असत् हैं। यदि स्वरूप की अपेक्षा भी असत् होते तो जिस प्रकार वे दूसरों का कार्य नहीं करते, उसी प्रकार अपना भी कार्य नहीं करते, किन्तु देखा यही जाता है कि प्रत्येक पदार्थ अपना ही कार्य करता है और कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ का कार्य कभी नहीं करता। इससे सिद्ध होता है कि पदार्थ कथञ्चित् सत् और कथञ्चित् असत् है।
शङ्का- एक साथ एक वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व सम्भव नहीं हैं; क्योंकि वे विधि और प्रतिषेध रूप हैं। जो विधि और प्रतिषेध रूप होते हैं, वे एक जगह वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते, जैसे शीतता और उष्णता, विधि-प्रतिषेध रूप अस्तित्व और नास्तित्व हैं। इस कारण वे एक जगह वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते।
समाधान- आपका यह कथन युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि एक जगह एक साथ रहने वाले अभिधेयपने और अनभिधेयपने के साथ आपका हेतु व्यभिचारी है। किसी एक वस्तु के अपने अभिधायक शब्द की अपेक्षा अभिधेयपना और अन्य वस्तु के अभिधायक शब्द की अपेक्षा अनभिधेयपना दोनों एक साथ स्पष्टतया पाए जाते हैं इसलिए वह एक जगह अभिधेयपने और अनभिधेयपने की एक साथ सम्भवता को साधता है, इस तरह जब यह स्वीकार किया जाता है तो एक स्वरूपादि की अपेक्षा से अस्तित्व पररूपादि की अपेक्षा से नास्तित्व, जो कि निर्बाधरूप से अनुभव में आ रहे हैं, एक जगह वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व की एक साथ सम्भवता को क्यों नहीं
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