________________
अनेकान्तवाद का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग
डॉ० रमाकान्त जैन
अनेकान्तवाद शब्द "अनेक", "अन्त” और “वाद" इन तीन शब्दों का समुच्चय है। “अनेक' का शाब्दिक अर्थ एक नहीं अर्थात् एक से अधिक, किन्तु दो ही नहीं, “अन्त' का अर्थ सिरे अथवा पक्ष या पहलू अथवा गुण और “वाद" का अर्थ बतलाने वाला होता है। "अनेकान्तवाद" जैन दर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त माना जाता है और “स्याद्वाद" उसकी चिन्तन प्रक्रिया और उसकी अभिव्यक्ति के प्रकार के रूप में जुड़ा हआ है। प्राय: जैनेतर चिन्तक और दर्शनशास्त्री अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को जैन दर्शन का पर्यायवाची मानते और समझते हैं। जैन दार्शनिकों और चिन्तकों ने तो इनकी विशद व्याख्या की ही है, जैनेतर चिन्तकों ने भी इनके सम्बन्ध में चिन्तन-मनन किया है और जैन दर्शन के इस सिद्धान्त की ओर उसकी इस प्रक्रिया की सार्थकता एवं उपादेयता के सम्बन्ध में अपने-अपने ढंग से अपनी प्रतिक्रिया समय-समय पर व्यक्त की है। यहां अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के शास्त्रीय पक्ष और उनके सम्बन्ध में विभिन्न चिन्तकों द्वारा व्यक्त मत-मतान्तरों की चर्चा करना अभीष्ट नहीं है, अपितु यह देखना और समझना है कि अनेकान्तवाद का सिद्धान्त और उससे जुड़ी स्याद्वाद प्रक्रिया हमारे दैनन्दिन जीवन में कितनी प्रासंगिक, संगत, सार्थक और उपादेय है।
_हम सब जानते हैं कि हर सिक्के के दो पहल होते हैं और सिक्के के एक ही पहलू का ज्ञान पूरे सिक्के के बारे में हमारी जानकारी पूर्ण नहीं करता। हर नदी के दो छोर होते हैं, हर सड़क के दो सिरे। एक छोर और एक सिरे को देखने और जानने मात्र से भले ही हम दूसरे छोर और सिरे की कल्पना, उसका अनुमान अपने मन में कर लें, किन्तु क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि दूसरे छोर और दूसरे सिरे के बारे में हमारी कल्पना या अनुमान सर्वथा सत्य ही है, उसमें यथार्थ से कुछ भिन्नता नहीं हो सकती । सिक्के के दोनों पहलू देखना तो सरल और सहज है, किन्तु किसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org