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Multi-dimensional Application of Anekantavāda
लम्बे राजमार्ग को एक सिरे से दूसरे सिरे तक या किसी विशाल नदी को उसके मुहाने से उसके सागर में विलीन होने तक के सम्पूर्ण यात्रा-पथ को देख पाना क्या सभी के लिए सहज और संभव हो पाता है, कहना कठिन है। इसीलिए उक्त राजमार्ग या विशाल नदी के किसी अंश मात्र को देखने से उसकी सम्पूर्णता के बारे में हमारा ज्ञान प्रायः हमारी कल्पना या अनुमान अथवा उसके बारे में सुनी-पढ़ी जानकारी पर आधारित होता है, जो सही भी हो सकता है अथवा वास्तविकता से कुछ हटकर।
__यही बात अन्य विषयों में भी बहत कुछ लागू होती है। कहते हैं कि भगवान महावीर ने कहा था, "हम सब जो कुछ हैं स्वयं अपने विचारों की परिणति हैं और जो कुछ हम सोचते हैं या चिन्तन करते हैं वह हमारे अपने विश्वासों और अनुभवों से, जो स्वयं हमसे अथवा अन्य प्राणियों से अथवा दोनों से सम्बन्धित है, जुड़ा हुआ है।" केवल उन सबका, सहानुभूतिपूर्ण परीक्षण और विवेकपूर्ण विश्लेषण पर आधारित तटस्थ अध्ययन तीव्र विरोध की स्थिति में भी एक दूसरे को समझने और सुखद समन्वय करने में सहायक होता है।" इसीलिए भगवान महावीर का मानना था कि" यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु के अनेक पक्षों में से अन्य सब पक्षों की उपेक्षा करते हुए या उन्हें अस्वीकार करते हुए उसके केवल एक पक्ष से चिपका रहे तो वह कभी सत्य की अनुभूति नहीं कर सकता।' इसीलिए सत्य की अनुभूति के लिए अनेकान्त दर्शन और उसकी स्याद्वाद पद्धति को जानना आवश्यक है।
___ "स्यात्' का अर्थ यहां शायद नहीं है जो प्राय: लोग समझ लेते हैं और इस पद्धति को अनिश्चिततावादी मान लेते हैं। स्याद्वाद पद्धति के प्रसंग में “स्यात्' का अर्थ "एक प्रकार से' एक दृष्टिकोण से "अथवा' एक विशिष्ट दृष्टिकोण या पक्ष से देखा जाना है'' यह सत्य को, वास्तविकता को जानने की एक प्रक्रिया है।
हम लोग अक्सर यह सोचते हैं कि तर्क के द्वारा सत्य को जान लेंगे, दूसरे को समझा देंगे और उसे प्रतिष्ठित कर देंगे परन्तु सर्वथा ऐसा नहीं है। प्राय: तर्क के द्वारा हम सत्य को नहीं जानते, नहीं समझते, अपितु अपने सीमित ज्ञान पर आधारित अपने पूर्वाग्रहों को पुष्ट करने और अपने बड़प्पन को उजागर करने का प्रयत्न करते हैं। तर्क देते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा तर्क किस काम आ रहा है, सत्य को जानने के लिए अथवा जो कुछ जानते हैं उसे सत्य सिद्ध करने के लिए यदि हमारे तर्क में हमारी स्वयं की प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है, अपना सम्मान बढ़ाने का उद्देश्य नहीं है, अहंकार को पुष्ट करने का प्रयत्न नहीं है और हम पूर्वाग्रह और कदाग्रह से पीड़ित नहीं हैं, तो हमारा तर्क दूसरों को मान्य हो सकता है, किन्तु यदि हमारा अभिप्राय दूसरा है, हम अपनी मान-प्रतिष्ठा हेतु, अपने अहंकार का पोषण करने के लिए तर्क द्वारा बलात दूसरों को अपने पूर्वाग्रह-कदाग्रह मनवाना चाहते हैं तो हमारा
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