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समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
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कैसे? जो ज्येष्ठ है, वह कनिष्ठ कैसे? जो गुरु है, वह शिष्य कैसे आदि प्रतीतिसिद्ध
और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले स्वरूप का अपलाप ही माना जायेगा । अपनी एकाकी दृष्टि से कुछ भी मान लिया जाये अथवा कह दिया जाये, किन्तु वस्तु में विद्यमान उन प्रतीतिसिद्ध धर्मों का अपलाप नहीं किया जा सकता, उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है।
___ अब उक्त दृष्टान्तों के प्रकाश में हम स्याद्वाद के कथन की परीक्षा करें। स्याद्वाद में परस्पर विरुद्ध दो धर्मों को एक पदार्थ में मानने का कारण यह है कि उसमें एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य से विलक्षण एक तीसरा ही पक्ष स्वीकार किया गया है। क्योंकि स्याद्वाद में प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षा से नित्य और किसी अपेक्षा से अनित्य स्वीकार की गई है। यह नित्यानित्य रूप सब लोगों के अनुभव में आता है।
__जैन दर्शन में सात तत्त्वों का जो स्वरूप है उनका उस स्वरूप से ही तो अस्तित्व है, किन्तु भिन्न स्वरूप से तो उनका नास्तित्व ही है। यदि जिस रूप से उनका अस्तित्व कहा जाता है, उसी रूप से नास्तित्व कहा जाये तो विरोध या असंगति हो सकती थी। स्त्री जिसकी पत्नी है, उसी की माता कही जाये तो विपरीत बात हो सकती है। ब्रह्म का जो स्वरूप नित्य, एक और व्यापक बताया जाता है उसी रूप से तो ब्रह्म का अस्तित्व माना जा सकता है, अनित्य, अनेक और अव्यापक रूप से तो नहीं । हम यहां एक प्रश्न पूछते हैं कि ब्रह्म का नित्यादि रूप से जिस प्रकार अस्तित्व है, क्या उसी प्रकार अनित्य आदि रूप से भी उसका अस्तित्व है? यदि ऐसा ही माना जाये तो क्या ब्रह्म का स्वरूप समझने योग्य रह जाता है? और फिर क्या वह समझ लिया जायेगा? यदि नहीं, तो ब्रह्म नित्यादि रूप से सत है और अनित्यादि रूप से असत है, इस प्रकार वह अनेक-धर्मात्मक सिद्ध हो जाता है, वैसे ही जगत् के समस्त पदार्थ इस त्रिकालाबाधित स्वरूप से व्याप्त हैं।
प्रमाता और प्रमिति आदि के जो स्वरूप हैं, उनकी दृष्टि से ही तो उनका अस्तित्व होगा, अन्य स्वरूपों से उनका अस्तित्व कैसे हो सकता है? अन्यथा स्वरूपों में संकरता होने से जगत् की व्यवस्था का ही लोप हो जायेगा। सामान्य जन असमंजस में पड़ जायेंगे कि हम प्रमाता किसे कहें, प्रमिति क्या है और प्रमाण का लक्षण क्या है?
पंचास्तिकाय की संख्या पांच है- चार, तीन या दो नहीं, इसमें क्या विरोध है? यदि यह कहा जाता है कि “पंचास्तिकाय पांच हैं, और पांच नहीं हैं' तो विरोध हो सकता था, पर अपेक्षाभेद से तो पंचास्तिकाय पांच हैं, चार आदि नहीं। दूसरी बात यह है कि सामान्य से पांचों अस्तिकाय अस्तिकायत्वेन एक होकर भी विशेष की अपेक्षा तद्तद् व्यक्तियों की दृष्टि से पांच भी हैं, इसमें विरोध कैसा और विरोध करने का कारण क्या है?
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