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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
स्वर्ग और मोक्ष अपने स्वरूप की दृष्टि से है, नरकादि की दृष्टि से नहीं, इसमें क्या आपत्ति है। स्वर्ग, स्वर्ग है, नरक तो है नहीं, मोक्ष, मोक्ष ही तो होगा, संसार तो नहीं होगा। इस बात को तो आपको भी मानना पड़ेगा और आप मानते ही होंगे।
उपनिषदों में सत् , असत, सदसत् और अवक्तव्य- ये चारों पक्ष मिलते हैं। बौद्ध त्रिपिटक में भी ये चार पक्ष मिलते हैं। सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है । उसी प्रकार इन चारों पक्षों को भी अव्याकृत कहा गया है। उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न अव्याकृत हैं
'होति तथागतो परं मरणाति ? न होति तथागतो परं मरणांति ? होति च न होति च तथागतो परं मरणाति नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति ? “सयंकतं दुक्खवंति ? परंकतं दुक्खवंति? सयंकतं परंकतं च दुक्खवंति असयकारं अपरंकारं दुक्खवंति ?
संजयवेलट्ठिपुत्त भी इस प्रकार के प्रश्नों का न "हां'' में उत्तर देता था न 'ना' में। उसका किसी भी विषय में कुछ भी निश्चय नहीं था। वह न "हां" कहता था न “ना” कहता, न अव्याकृत कहता, न व्याकृत कहता। किसी भी प्रकार का विशेषण देने में वह भय खाता था। दूसरे शब्दों में वह संशयवादी था। किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट नहीं करता था।
__ स्याद्वाद और संजय के संशयवाद में यह अन्तर है कि स्याद्वाद निश्यचात्मक है, जबकि संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है। महावीर प्रत्येक प्रश्न का अपेक्षा भेद से निश्चित उत्तर देते थे । वे न तो बुद्ध की तरह अव्याकृत कहकर टाल देते थे,
और न संजय की तरह अनिश्चय का बहाना बनाते थे, जो लोग स्याद्वाद को संजयवेलट्ठिपुत्त का संशयवाद समझते हैं, वे स्याद्वाद के स्वरूप को समझ नहीं पाए हैं । जैन दर्शन के आचार्यों ने स्प्ष्ट कहा है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, स्याद्वाद अज्ञानवाद नहीं है, स्याद्वाद अस्थिरवाद या विक्षेपवाद नहीं है। वह निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है। संजय के अनिश्चयवाद का स्याद्वाद से कोई सम्बन्ध नहीं है ।
अनेकान्त के विरोधी तर्कों पर गम्भीरता से विचार किया जाय तो पता लगता
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