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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
है, आप उसे सम्भववाद कहना चाहते हैं, परन्तु “स्यात्' का अर्थ सम्भववाद करना भी न्यायसंगत नहीं है। 'स्यादस्ति घट:' अर्थात् स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से घट है ही, 'स्यान्नास्ति घट:' पर द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की अपेक्षा से घट नहीं है। स्याद्वाद स्पष्ट रूप से यह कह रहा है कि- “स्यादस्ति' यह द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव इस स्व चतुष्टय की अपेक्षा से है ही, तो यह निश्चित अवधारणा है। अत: यह न सम्भववाद है और न अनिश्चयवाद ही, किन्तु खरा अपेक्षायुक्त निश्चयवाद है।"
प्रो० फणि भूषण अधिकारी के अनुसार - “जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया, उतना अन्य किसी भी सिद्धान्त को नहीं। यहां तक कि वैदिक आचार्य शंकराचार्य भी दोषमुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार हो तो मैं भारत के इस महान विद्वान् के लिए तो अक्षम्य ही कहूंगा, यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शन-शास्त्र के मूल-ग्रंथों की परवाह नहीं की।"
पाश्चात्य विद्वान् डॉ० थामस का कहना है- “स्याद्वाद सिद्धान्त बड़ा गम्भीर है। यह वस्तु की भिन्न-भिन्न स्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है। स्याद्वाद का अमर सिद्धान्त दार्शनिक जगत् में बहुत ऊंचा सिद्धान्त माना गया है। वस्तुत: स्याद्वाद सत्य ज्ञान की कुंजी है। दार्शनिक क्षेत्र में स्याद्वाद को सम्राट का रूप दिया गया है। स्यात् शब्द को एक प्रहरी के रूप में स्वीकार करना चाहिए जो उच्चरित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता है। यह अविवक्षित धर्म का संरक्षक है, संशयादि शत्रुओं का संरोधक व विभिन्न दार्शनिकों का संपोषक है।”
_ विद्वानों के अभिमतों को उपस्थित करने के बाद अब शंकराचार्य के कथन के बारे में स्याद्वाद का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि उन्होंने स्याद्वाद के अन्तर्रहस्य को समझने का प्रयास न कर यथार्थता की उपेक्षा की
वस्तु अनेकान्तरूप है। उसमें अनेक धर्म अपेक्षा-पूर्वक अविरोध रूप से रहते हैं। यह समझने की बात नहीं है। एक ही पदार्थ अपेक्षा भेद से परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का आधार होता है। जैसे कि एक ही व्यक्ति अपेक्षा भेद से पिता भी है, पुत्र भी है, गुरु भी है, शिष्य भी है, ज्येष्ठ भी है, कनिष्ठ भी है। इसी तरह और भी अनेक उपाधियाँ अपनी अपेक्षाओं से उसमें विद्यमान हैं । यही बात प्रत्येक वस्तु के बारे में भी समझनी चाहिए कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन्न अपेक्षाओं से उसमें अनन्त धर्म संभव हैं। केवल अपनी इच्छा से यह कह देना कि जो पिता है, वह पुत्र
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