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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
अनेकान्त कहलाता है।
अनेकान्त जो ज्ञानमात्र भाव है, जीवपदार्थ है, शुद्धात्मा है वह तद्रूप या अतद्रूप, एकानेकात्मक, सदसदात्मक या नित्यानित्य आदि स्वभाव का प्रतिपादन करने वाला होता है।
आत्मा ज्ञान रूप से तद्रूप है और वही ज्ञेय रूप से अतद्रूत है। द्रव्यार्थिक नय से एक है और पर्यायार्थिकनय से वही अनेक रूप भी है। अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण वही सद्प है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वही असद्रूप भी है। अनेकान्त भेद
'अनेकान्तोऽपि द्विविध:- सम्यगनेकान्तो मिथ्याऽनेकान्तो' अनेकान्त दो प्रकार का है- सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । सम्यक् अनेकान्त में वस्तु के समग्र भाव को परस्पर सापेक्ष रूप में ग्रहण किया जाता है, उसका विषय बनाया जाता है। यक्ति और आगम से अविरुद्ध एक ही स्थान पर प्रतिपक्षी अनेक धर्मों का निरूपण/प्रतिपादन/कथन किया जाता है। उसमें वस्तु की युगपत् वृत्ति होती है, जिसे अक्रम-अनेकान्त भी कहते हैं, तथा तत् अतत् स्वभाव वस्तु से शून्य केवल वचन विलास रूप परिकल्पित अनेक धर्मात्मक मिथ्या अनेकान्त है। मिथ्या अनेकान्त में परस्पर निरपेक्ष होकर अनेक धर्मों का सम्पूर्ण रूप से प्रतिपादन किया जाता है। विधि और निषेध
_ “यत् सत्तत्सर्वमनेकान्तात्मकं अर्थक्रियाकारित्वात् ।”
जो सत् स्वरूप वस्तु है, वह अर्थक्रियाकारी होने से अनेकान्तात्मक है। “न किंचिदेकान्तं वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थ क्रियाऽसंभवात् ।” कोई भी वस्तु तत्त्व एकान्त रूप से युक्त नहीं है, क्योंकि उसमें अर्थक्रियाकारिता नहीं बनती है। अर्थतत्त्व विधि और निषेध से समर्थित है।
नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा। तथा ऽन्यथा च सोऽवश्यमविशेष्यत्वमन्यथा११०।।
जहाँ अर्थ तत्त्व को विधि रूप वाक्य एवं निषेध रूप वाक्य द्वारा नियमित किया जाता है, वहाँ अनेकान्तवाद होता है। जिस समय यह कहा जाता है कि ईरान-ईराक लड़ रहे हैं उस समय विधि रूप में ईरान-इराक की लड़ाई मुख्य हो जाएगी, अन्य लड़ने वाले, युद्ध करने वाले देशों का निषेध हो जाएगा। आचार्य सिद्धसेन की इस गाथा द्वारा इसे समझा जा सकता है।
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