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अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण है, स्याद्वाद में मात्र स्वप्रकाशक ज्ञान है, दर्शन मात्र शुद्धात्मा का विषय नहीं है अपितु स्याद्वाद आत्म-दर्शन ज्ञान अनेक धर्मों का आधार है। इसलिए आचार्य ने कहा"स्याद्वादविद्या रूपी देवता सज्जनों/तत्त्व-वेत्ताओं के द्वारा निरन्तर ही आधार बनाने योग्य है। स्याद्वाद अनेक अर्थदायक
सिद्धमंतो यथा लोके एकोऽनेकार्थदायकः । स्याच्छब्दोपि तथा ज्ञेय एकोऽनेकार्थसाधक:१०८।।
जिस तरह सिद्ध किया गया मन्त्र एक-अनेक अर्थ को प्रदान करने वाला है, उसी तरह ‘स्यात्' शब्द भी एक अनेक अर्थ साधक है, ज्ञेय तत्त्व का प्रतिपादक है। यह अनेकान्त का द्योतक है। यथावस्थित वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करने वाला अन्य कोई नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, अनन्त स्वभाववाली हैं। यह विषयीकृत अर्थ का व्यञ्जक है, अपने साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला है। इस सिद्धान्त द्वारा एक वस्तु के अतिरिक्त अन्य वस्तु का अपलाप नहीं किया जाता है अपितु वह उसमें उदासीनता को लिए स्थित रहता है।
यह इसी कारण अपेक्षावाद, सापेक्षवाद, अनेकान्तवाद, विभज्यवाद, भजनवाद आदि के नाम से जाना जाता है।
आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में स्याद्वादाधिकार नामक स्वतन्त्र अधिकार है, उसमें कहा है
____ “स्यात् कथञ्चित् विवक्षित-प्रकारेणानेकान्तरूपेण वदनं वादो जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वाद:।" स च स्याद्वादो भगवतोऽहेतुः शासनमित्यर्थः १०९।''
'स्यात्' अर्थात् कथञ्चित् विवक्षित प्रकार से अनेकान्त रूप से बोलना वाद जल्प, कथन और प्रतिपादन ही स्याद्वाद है। 'स्याद्वाद' अनेकान्त वाद अरहंत देव का शासन है, जिस शासन में सम्पूर्ण वस्तुओं का विवेचन अनेकान्त रूप में प्रतिपादित किया जाता है। अनेकान्त इति कोऽर्थः?
अनेकान्त का क्या अर्थ है? “एक वस्तुनि वस्तुत्वविषयक-निष्पादनं-अस्तित्वनास्तित्वद्वयादि-स्वरूप-परस्पर-विरुद्ध-सापेक्ष-शक्ति द्वयं यत्तस्य प्रतिपादनं स्याद्वादनेकान्तो भण्यते ॥
___ “एक ही वस्तु में वस्तुत्व गुण को निष्पन्न करने वाली अस्तित्व नास्तित्व सदृश दो परस्पर विरुद्ध सापेक्ष शक्तियों का जो प्रतिपादन किया जाता है वह स्याद्वाद
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