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अनेकान्त: स्वरूप और विश्लेषण
अर्थात् जो भूतार्थ का आश्रय लेते हैं, वे ही समीचीन देखने वाले सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं। कतक फल के स्थान पर पर संयोग को दूर करने वाला शुद्धनय है। जो परमार्थ को परमार्थ बुद्धि से अनुभव करते हैं, वे ही समयसार का अनुभव करते हैं। अत: भूतार्थनय समीचीन वस्तु तत्त्व का ज्ञान कराने वाला है।
अभूतार्थनय
यह नय विशेषता की दृष्टि को रखकर विषमता को पैदा करने वाला है। जहाँ भेद-प्रभेद का ही समावेश होता है । जो अन्य द्रव्य के परिणमन को अन्य द्रव्य में एकाकार करके ग्रहण करता है, वह अभूतार्थनय है ।
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"सर्वेऽपि कथमभूतार्थः ? गुण- पर्यायवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च ! अर्थात् सभी विषमता वाले अभूतार्थ कैसे ? क्योंकि 'गुण - पर्यायवत् द्रव्यम्' द्रव्य का लक्षण इसमें भी है, ऐसा उपदेश भी है।
इसका उत्तर देते हुए कहा जाता है कि भूतार्थ में 'सत्' न गुण है न पर्याय है, न उभय है और न उनका योग है, अपितु वह तो द्रव्य के परिणमन को अन्य द्रव्य में सम्मिलित करके चलता है। जैसे
"कोई कहता है कि अग्नि ही ईंधन है, ईंधन ही अग्नि है, अग्नि ही पहले ईंधन था और ईंधन ही पहले अग्नि थी, आगे भी अग्नि ही ईंधन होगी और ईंधन ही अग्नि होगी। इस प्रकार का कथन अभूतार्थ है। वैसे ही जो सदा देह-रागादि रूप पर द्रव्यों को अपनी आत्मा के साथ जोड़ता है वह अप्रतिबुद्ध अर्थात् बाह्यदृष्टि वाला मिथ्याज्ञानी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसे अधिक स्पष्ट करने के लिए कहा
" अहमेदं एदमहं अहमेदस्सेन होमि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सचित्ताचित्तमिस्सं वा५८ ॥
अर्थात् आत्मा अपने आप से भिन्न सचित्त - आत्मा अपने आप से भिन्न सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित मुकुट कुण्डलादिक, और मिश्र आभरण सहित स्त्री आदि इन वस्तुओं में, मैं यही हूँ, यही वह मैं हूँ, ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ, ये मेरे थे, मैं पहले इनका था, आगे भी ये मेरे रहेंगे, और मैं इनका होऊँगा ऐसा संयोगात्मक विकल्प अभूतार्थ का है। यथा
"कोऽपि ग्राम्याजनः सकर्दमं नीरं पिवति, नागरिक: पुन: विवेकी जनः कतकफलं निक्षिप्य निर्मलोदकं पिवति । तथा स्वसंवेदनरूप भेद-भावनाशून्यजनो मिथ्यात्व - रागादिविभाव-परिणाम-सहितमात्मानमनुभवति।”
जैसे कोई ग्राम्यजन सकर्दम जल पीता है और विवेकी नागरिक निर्मली डालकर
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