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कवि श्रीधर ने युद्ध सम्बन्धी सुन्दर वर्णन तो किये ही हैं और साथ ही साथ युद्ध में प्रयोग किए जाने वाले विविध प्रकार के शस्त्रास्त्रों के नामोल्लेख भी किए हैं । इससे मध्यकालीन युद्ध-विद्या एवं युद्ध-सामग्री पर अच्छा प्रकाश पड़ता है (३।२०, ५।७-२२)।
'वडूढमाण चरिउ' का अध्ययन करनेसे यह विदित होता है कि ग्रन्थकार बहुज्ञ था। किसी भी प्रासंगिक विषय पर वह उसकी गहराई तक जाने का पूर्ण प्रयत्न करता है। वह जब चक्रवर्तियो एवं सम्राटों के विषय में अपनी लेखनी चलाता है तो उनकी परिभाषाओं, कार्यप्रणालियों एवं राजनीति के विषय में भी गहरी चर्चा करता है। चक्रवर्ती राजा के पास होने वाले चेतन एवं अचेतन सात रत्नों एवं नवनिधियों के उल्लेख एवं उनके फलों का भी उसने निर्देश किया है । कवि का यह वर्णन निश्चय ही मध्यकालीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है (८1५1८-१३)
विद्यासिद्धि भारतीय साधना एवं संस्कृति का प्रमुख तत्त्व रहा है। समाज को चमत्कारों द्वारा प्रभावित करने का यह एक बड़ा भारी साधन था । प्रतीत होता है कि कवि के समय में भी उक्त विद्या-सिद्धि का पर्याप्त प्रचार था (४।१८-१९)
राजनीति के क्षेत्र में भी कवि ने कुछ मूलभूत सिद्धान्तों की चर्चा की है । उसके अन्तर्गत कविने साम (४।१४) एवं भेद नीतियों (४।१५) को प्रमुखता दी है। प्रसंगवश उसमें सन्धि नीति (५।१) का भी उल्लेख किया है । क्योंकि इससे अकारण ही निरपराधियों का रक्तपात नहीं होता । एक प्रसंग में उसने राजा की तीन प्रधान शक्तियों-मन्त्र, उत्साह एवं बल (२।२) की भी चर्चा की है। राजागण जिस स्थान पर बैठकर गुप्त मन्त्रणा करते थे, कविने उसे 'मन्त्रगृह' (६।६) कहा है ।
प्रस्तुत काव्य में तीर्थकर महावीर के जन्माभिषेक, निष्क्रमण, तपश्चरण, विहार, बोधिलाभ एवं निर्वाण के प्रसंगों में नाना प्रकार की पौराणिक मान्यताओं का भी समावेश किया गया है (९३८)। . वड्ढमाणचरिउ के कर्त्ता की यह विशेषता है कि वह शब्दाडम्बर के घटाटोपों से दूर रहने का प्रयास करता है । रसों एवं अलंकारों की जबरदस्त ढूंस-ठाँस एव रहस्यवाद जैसे नीरस वादों से अपनी रचनाओं को दुरुह नहीं बनाता । जनकवि होने के कारण उसने गहन विषय लेकर भी उसे लोकानुकूल बनाकर उसे अत्यन्त सरस एवं सरल भाषा-शैली में प्रस्तुत किया है । वर्ण्य विषय को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिए कवि ने लोकोक्तियों एवं मुहावरों का भी प्रयोग किया है, क्योंकि काव्य में इनका वही स्थान है, जो सोने के आभूषन में नगीने का (१।१७।१-२, २।१, ४६८, ४।१२, ५।३-४)।
वड्ढमाणचरिउ में नायक के उदार चरितके साथ-साथ आचार, दर्शन एवं सिद्धान्त सम्बन्धी मान्यताएँ भी वर्णित हैं । कवि श्रीधर ने इसमें जैनागम का सार गागर में सागर की तरह भर दिया है । उक्त समस्त मान्यताएँ परम्परा प्राप्त ही हैं । कबि ने समवशरणप्रसंग में मुनि एवं गृहस्थाचार, सप्ततत्त्व, अनुप्रेक्षाएँ, मार्गणा, गुणस्थान, चार गतियाँ, सृष्टिरचना प्रभृति का विस्तृत वर्णन किया है। १-एयारह-सएहिं परिविगयहिं । संवच्छरसए णवहि समयहि । वड्ढ, १०॥४१॥८ २-चंदप्पह-संतिजिणेसराहँ । भव्वयण-सरोज-दिणेसराहँ । वड्ढ. १।२।६ ३-अनेकान्त.८।१२।४६५
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