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________________ सकती है । यद्यपि उस समय यह प्रश्न खड़ा होगा कि एक ही कवि एक ही विषय पर एक ही भाषा में एक ही आश्रयदाता के निमित्त दो-दो रचनाएँ क्यों लिखेगा ? किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि कोई कवि एक ही विषय पर एक ही बार रचना करे ? एक ही कवि विविध समयों में एक हो विषय पर एकाधिक रचनाए लिख सकता है । 'भविसयत्त कहा' में श्रीधर को 'विबुध' एवं 'कवि' कहा गया है तथा 'भविसयत्त चरिउ' में उसे विबुध के साथ साथ 'मुनि' की उपाधि भी प्राप्त है । हो सकता है कि श्रीधर उस समय 'मुनिपद' धारण कर चुके हों । अतः एक रचना उसने आश्रयदाता की प्रेरणा से मुनि बनने के पूर्व की हो तथा दूसरी रचना अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने हेतु तथा पंचमीत्रत कथा को ओर अधिक सरस बनाने हेतु परिवर्तित शैली में उसी आश्रयदाता की प्रेरणा से मुनिपद धारण करने के बाद की हो । वस्तुतः इसके परीक्षण में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है । उक्त संगतियों एवं असंगतियों को ध्यान में रखते हुए यदि विवादास्पद समस्याओं को पृथक रखना चाहें तो यह प्रायः निश्चित है कि 'वडूढमाणचरिउ', 'पासणाहचरिउ' 'सुकुमाल चरिउ एवं 'भविसयत्त कहा' के लेखक अभिन्न हैं । इस दृष्टि से कवि का रचनाकाल वि० सं० ११०९ से १२३० स्थिर हो सकता है । विबुध श्रीधरने अपनी कृतियों में अपना विस्तृत परिचय नहीं दिया। उनके 'वड्ढमाण चरिउ' से ज्ञात होता है कि उनके पिता का नाम गोल्ह तथा माता का नाम वील्हा था । वे असुहर ग्राम के निवासी थे४ । कविकी दूसरी रचना 'पासणाह चरिउ' की प्रशस्ति से उपर्युक्त सूचनाओं के साथ-साथ यह भी ज्ञात होता है कि कवि हरियाणा देश का निवासी अग्रवाल जैन था । वह यमुना नदी पारकर 'ढिल्ली' आया था, जहाँ राजा अनंगपाल के मंत्री नट्टलसाहू की प्रेरणा से कवि ने पासणाहचरिउ की रचना की थी५ । वड्ढमाण चरिउ में उल्लिखित पूर्ववर्ती रचनाएँ चंदप्पह चरिउ एवं संतिजिणेसर चरिउ अद्यावधि अनुलब्ध ही हैं। उनके उपलब्ध होने पर उनकी प्रशस्तियों से सम्भवतः कवि-परिचय पर और विशेष प्रकाश पड़ सकेगा। विबुध श्रीधर कृत वड्ढमाणचरिउ की कुल तीन हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ उपलब्ध हैं जो राजस्थान के ब्यावर, दूणी एवं झालरापाटन के शास्त्र-भण्डारों में सुरक्षित हैं । ये प्रतियाँ अपूर्ण हैं । उनमें अन्तिम पत्र न रहने से उनका प्रतिलिपिकाल ज्ञात न हो सका । फिर भी अनुमानतः ये ३०० से ४०० वर्ष के बीच की प्रतियाँ प्रतीत होती हैं । इनमें से ब्यावर की प्रति में ८६४२ पत्र हैं । प्रति पृष्ठ ११-११ पंक्तियाँ एवं प्रति पंक्ति में लगभग १६-१६ शब्द एवं ४२ से ४५ तक वर्ण हैं । इसका कागज कुछ मटमैला और पतला है । उसमें काली एवं लाल स्याही का प्रयोग हुआ है और प्रति जीर्णोन्मुख है। कवि श्रीधर ने वड्ढमाण चरिउ के लेखन-कार्य में प्रेरक एवं आश्रयदाता का परिचय देते हुए अपनी ग्रन्थ-प्रशस्ति में लिखा है-"जायस कुलावतंस श्री नरवर एवं सोमा के पुत्र नामचन्द्र ने एक दिन कवि से कहा कि हे कवि श्रीधर, जिस प्रकार आपने संसार में संताप को दूर करने वाले चन्द्रप्रभ एवं शान्ति जिनेश्वर के चरितों की रचना की हैं, उसी प्रकार अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान के चरित को भी रचना कर दीजिये ।” कवि ने उस आग्रह को स्वीकार कर 'वर्धमान-चरित' की रचना कर दी । अपनी अन्त्य प्रशस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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