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________________ ११. अपभ्रंश-कवि विबुध श्रीधर और उनका वड्ढमाणचरिउ डॉ राजाराम जैन, बोधगया मध्यकालीन भारतीय संस्कृति और इतिहास, आधुनिक भारतीय-भाषाओं के क्रमिक विकास तथा उनका भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन और विविध साहित्यक विधाओं के सर्वांगीण प्रामाणिक अध्ययन के लिए अपभ्रंश भाषा एवं उसके साहित्य का अपना विशेष महत्त्व है। उसमें उपलब्ध विस्तृत प्रशस्तियाँ, ऐतिहासिक सन्दर्भ, लोक-जीवन के विविध चित्र, समसामयिक सामाजिक परिस्थितियाँ, राजनीति, अर्थनीति एवं धर्मनीति के विविध सूत्र, हासपरिहास एवं विलास-वैभव के रससिद्ध चित्राङ्कन इस साहित्य के प्राण हैं । अपभ्रंश के प्रायः समस्त कवि आचार और दार्शनिक तथ्यों तथा लोक-जीवन की अभिव्यञ्जना कथाओं एवं चरितों के परिवेशों में करते रहे हैं । इस प्रकार के चरितों और कथानकों के माध्यम से अपभ्रंश-साहित्य में मानव-जीवन तथा जगत को विविध मूक-भावनाएँ एवं अनुभूतियाँ मुखरित हुई हैं, क्योंकि वह एक ओर पुराण-पुरुषों के महामहिम आदर्श चरितों से समृद्ध है, तो दूसरी ओर सामन्तों, वणिक पुत्रों अथवा सामान्य वर्ग के व्यक्तियों के सुख-दुखों अथवा रोमांसपूर्ण कथाओं से परिव्याप्त है । ____ अपभ्रंश साहित्य की इसी श्रृंखला में विबुध श्रीधर का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । उनके द्वारा विरचित वडूढमाण चरिउ अपभ्रंश साहित्य में उपलब्ध महाकाव्य शैली की प्रथम महावीरचरित सम्बंधी रचना है । विबुध श्रीधर के सर्वांगीण विस्तृत जीवन-परिचय को जानने के लिए पर्याप्त सन्दर्भसामग्री उपलब्ध नहीं है । कवि ने अपने 'वढमाणचरिउ' को अन्त्य-प्रशस्ति में उसका केवल रचनाकाल हो दिया है, जो वि. सं. ११०९' है । इस रचना में उसने अपनी परवर्ती अन्य दो रचनाओं के भी उल्लेख किए हैं जिनके नाम हैं- चन्दपह चरिउ एवं संतिजिणेसर चरिउ । किन्तु ये दोनों ही रचनाएँ दुर्भाग्य से अद्यावधि अप्राप्त हैं । ग्रन्थ-प्रशस्ति में समकालीन राजाओं अथवा अन्य किसी ऐसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता, जिससे कि उसके जोवनकाल पर कुछ विशेष प्रकाश पड़ सके । वड्ढमाण-चरिउ की प्रत्येक सन्धि के अन्तमें दी गई पुष्पिका में कवि ने अपने लिए विबुह सिरि सुकइसिरिहर [विबुध श्री सुकवि श्रीधर ] कहा है । इससे स्पष्ट है कि उक्त कवि श्रीधर 'सुकवि' एवं 'विबुध' उपाधि से भी विभूषित थे। अपभ्रंश एवं संस्कृत साहित्य में उक्त वड्ढमाण चरिउ के अतिरिक्त सात अन्य ऐसी रचनाएँ और भी उपलब्ध हैं, जिनके कर्ता भी श्रीधा नामके ही हैं । इनकी भिन्नता अथवा अभिन्नता विचारणीय हैं । उनकी रचनाएँ निम्नप्रकार हैं -- १. पासणाहचरिउ-के कर्त्ता श्रीधर]-वि. सं. ११८९. सुकमालचरिउ- (के कर्ता श्रीधर)-वि. सं. १२०८. ३. भविसयत्तकहा-(के कर्ता श्रीधर) वि. सं. १२३०. ४. भविसयत्तचरिउ (के कर्ता श्रीधर) वि. सं. १५३० ५. विश्वलोचनकोष-(के कर्ता श्रीधर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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