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३. कुवलयमालाकहा में लोकतत्त्व
डॉ० प्रेम सुमन जैन, उदयपुर प्राकृत साहित्य तर्कपूर्ण एवं विकसित चिन्तन का प्रचारक होते हुए भी जाने-अनजाने उन लोकतत्त्वों को भी स्वीकारता चलता है जो जैन-धर्म अथवा उसके महापुरुषों के जीवन की महिमा को प्रतिष्ठापित करते हैं। अनेक ऐसे जैनाचार्य हुए हैं, जिन्होंने संकट के समय मन्त्र, तन्त्र, योग एवं विभिन्न विद्याओं आदि का प्रयोग किया है। पिण्डनियुक्ति, वृहत्कल्पभाष्य, निशीथचूर्णि आदि प्राकृत टीका साहित्य में ऐसे कितने ही प्रसंगों का उल्लेख है, जो लोकमानस एवं लोकतत्त्वों से सम्बन्धित है । डा. जगदीशचन्द्र जैन ने लोकविश्वासों व रीति-रिवाजों के प्राकृत साहित्य से अनेक सन्दर्भ एकत्र किये हैं,' जिनका आधुनिक लोकसाहित्य विज्ञान के आधार पर अध्ययन किया जाना आवश्यक है । जैनागम टीका साहित्य में लोकतत्त्वों की प्रचुरता से एक बात स्पष्ट होती है कि इस समय तक प्राकृत साहित्य लोकजीवन से अधिक सम्बद्ध था तथा शिष्ट साहित्य की प्रवृत्तियाँ उस पर हावी नहीं हुई थीं। किन्तु आगे चलकर इस स्थिति में क्रमशः परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं ।
समस्त प्राकृत साहित्य की लोकतात्त्विक प्रवृत्तियों का विश्लेषण कर पाना यहाँ कठिन है। अतः कुवलयमालाकहा के कथानक को लेकर ही इस सम्बन्ध में कुछ प जा सकता है । उद्योतनसूरि ने इस कथा को हर दृष्टि से सशक्त बनाने का प्रयत्न किया है। इस ग्रन्थ की अपनी अलग सांस्कृतिक उपयोगिता है । लोकतत्त्व की दृष्टि से इ दो प्रकार के तत्त्वों को खोजा जा सकता है--एक वे, जिनका खण्डन किया गया है
और दूसरे वे, जो जाने-अनजाने कथाकार द्वारा स्वीकार किये गये हैं। तथा जिनको स्वीकृति इस युग के अन्य प्राकृत कथाकारों के द्वारा भी मिली है।
कुवलयमाला में चण्डसोम, मानभट आदि की जो कथाएँ हैं उन पाँचों में पाप कार्यों के प्रायश्चित के लिये लोकविश्वास के आधार पर प्रभास आदि तीर्थों की वन्दना, वटवृक्षपूजन तथा गंगास्नान के लिए प्रमुख पात्र प्रवृत्त होते हैं । किन्तु उद्योतनसूरि ने धर्माचार्य धर्मनन्दन द्वारा इन सब धार्मिक विश्वासों का खण्डन करा दिया है । आचार्य का कथन है
पाप मन वाले आत्मा को बाह्य जल से धोना उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार कुम्हार की स्त्री के प्रसूता होने पर लुहार की स्त्रो द्वारा घी पीना ।
यदि अङ्गप्रक्षालनमात्र से आत्मा पवित्र हो सकती तो गंगा के जल में रहने वाले मगर, मत्स्य, केवट आदि सर्वप्रथम स्वर्ग चले जाते । तथा
___ यदि यह माना जाय कि मन की पवित्रता के कारण तीर्थजल प्रभावक होता है तो दूर दक्षिण देश के लोग इतनी दूर गंगा में स्नान करने न जाते । चिंतन करके ही स्वर्ग चले जाते।
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