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जिनप्रभसूरि द्वारा रचित मदनरेखा संधि और नर्मदासुन्दरी-संधि में प्रसिद्ध सोलह जैन महासतियों में से दो के जीवनचरित्र हैं। अनाथि-संधि में उत्तराध्ययन सूत्र के बीसवें महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन की कथा दी गई है । जीवानुशास्ति और चतुरङ्ग-भावना संधि उपदेशात्मक हैं।
विनयचन्द्र द्वारा रचित 'आनंद श्रावक संधि' भगवान महावीर के उपासक आनन्द नामक गृहपति की कथा का निर्वहन करती है । उनकी कथा सातवें अंग ग्रन्थ 'उवासगदसाओ' के प्रथम अध्ययन में आती है ।
रत्नप्रभगणि-विरचित 'अंतरङ्गसंधि' एक रूपकात्मक काव्य है, जिसमें अंतरङ्ग शत्रु मोह रूपी राजा को पराजित करके जिनेन्द्र ने भव्यजीवों को कैसे बचाया उसका नाध्यात्मक चित्रण किया गया है।
१३वी संधि में भगवान पार्श्वनाथ के प्रमुख गणधर केशी और भगवान महावीर के पट्टशिष्य गणधर गौतम का संवाद मिलता है । उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन में प्राप्त इस कथा को यहाँ पर मनोहर काव्य-स्वरूप मिला है ।
१४वीं भावना-संधि जैन-धर्म-प्रसिद्ध १२ भावनाओं का वर्णनात्मक काव्य है ।
जयशेखरसृरि-शिष्य द्वारा रचित दो संधियों (१५-१६) में क्रम से शील-चारित्र्य की महत्ता और उपधान नामक एक जैन तप का माहात्म्य दर्शाया गया है ।
१७वीं हेमतिलकसरि संधि में १४वीं शताब्दी के वडगच्छ के पट्टधर हेमतिलकसूरि की संक्षिप्त जीवनगाथा मिलती है ।
१८वीं तप संधि में जैन धर्म में तप का क्या माहात्म्य है यह दिखाया गया है। १९वीं संधि में ७वीं संधि के नायक अनाथि मुनि की सुन्दर काव्यात्मक कथा मिलती है। २०वीं संधि में नाम के अनुसार साधारण उपदेश दिया गया है ।
इस तरह सभी संधि-काव्य जैन शास्त्रों एवं पुराणों में वर्णित पात्रों एवं प्रसंगों को लेकर रचे गये हैं और उनका हेतु है धर्मोपदेश ।
इन काव्यों में उपलब्ध अनेक संदर्भ पश्चिम भारत-खास करके गुजरात-राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास और संस्कृति के अभ्यास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। इन कान्यों का विशुद्ध रूप में प्रकाशन अपभ्रंश और प्राच्य-अर्वाचीन गुर्जर भाषा के अध्ययन के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
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