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________________ 177 इनमें से कतिपय कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं, परंतु अधिकतर अभी सभी कृतियों का अंतरंग परीक्षण करके यहाँ पर निष्कर्षरूप में निम्न ' कर्ता एवं रचना समय :- इन संधिकाव्यों के रचयिता सभी जैन हैं, इतना ही नहीं अपितु वे जैन मुनि एवं आचार्य हैं । इस से सिद्ध होता है कि जैनेतर कवियों ने शायद संधि-काव्य प्रकार को अपनाया ही नहीं अथवा तो उनकी रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं । उपरोक्त बीस रचनाओं में से भी प्रथम दस तो दो ही कवियों की रचनाएँ हैं । प्रथम पाँच के रचयिता है प्रसिद्ध जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि, जिन्होंने धर्मदासगण - रचित उपदेशमाला की वृत्ति रची थी । 'दोघट्टी' वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध उनकी इसी वृत्ति के अन्तर्गत ही ये पाँचों काव्य रचे गये मिलते हैं । इस वृत्ति की रचना ई. स. ११८२ में हुई थी । रत्नप्रभसूर संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों भाषाओं की साहित्यरचना में सिद्धहस्त थे । ' दोघट्टी वृत्ति में उपरोक्त संधियों के उपरांत अनेक अपभ्रंश पद्यखंड आते हैं । अप्रकाशित हैं। इन सामग्री दी गई है । दूसरे पाँच संधिकाव्य जिनप्रभसूरि नामक आचार्य के रचे हुए हैं । वे आगमगच्छ के आचार्य थे और उनकी उत्तरकालीन अपभ्रंश या आद्य गुजराती की अनेक रचनाएँ पाटन के भंडारों में प्राप्त होती हैं। वे ई. स. की १३ वीं शताब्दी के प्रारंभ में विद्यमान थे 1 ग्यारहवीं 'आनंद श्रावक' : संधि के रचयिता विनयचन्द्र सूरि थे । उनकी अन्य दो प्राचीन गुजराती रचनाएँ प्रकासिद्धू हो चुकी हैं - १. नेमिनाथ चतुष्पदिका और २. उवएसमालाकहाणय-छप्पय । तदुपरांत उनकी मुनिसुव्रतस्वामि-चरित, कल्पनिरुक्त (र. १३३५) एवं दिपालिकाकल्प (सं. १३४५) नामक कृतियाँ प्राप्त हैं। संधि १२, १४ और २० के कर्त्ताओं के नाममात्र प्राप्त हैं । संधि १३, १५ - १६ और १८ में कर्ताओं के गुरुओं के नाम ही उल्लिखित हैं । ये तीनों नाम तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्यों के नाम हैं। बाकी की संधि १७ और १९ के कर्ता अज्ञात हैं । इन सब संधियों ( १२ से २० तक) के रचना समय का अनुमान उस संधि की हस्तप्रति के लेखन समय एवं भाषा आदि के लक्षणों से किया गया है । विषय वस्तु : - रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित प्रथम दो संधियाँ क्रमशः प्रथम और अंतिम तीर्थंकरके जीवन की महत्त्वपूर्ण तपश्चर्या, तत्पश्चात् पारणा और पारणा कराने वाली भव्य आत्माओं के जीवन का वर्णन करती हैं । अन्य तीन संधियाँ क्रमशः गजसुकुमाल, शालिभद्र और अवंतिसुकुमाल नामक उच्चकुलोत्पन्न युवकों का महावीर के प्रति आकर्षण, दीक्षा, तपश्वर्या और केवल - प्राप्ति एवं निर्वाण के प्रसंगों को प्रस्तुत करती हैं । १. रत्नप्रभसूर के परिचय के लिए देखें -रत्नाकरावतारिका, संपा. पं. दलसुखभाई मालवणिया भा. ३ प्रस्तावना पृ. २१ २. देखें पत्तनस्थ प्राच्य जैन भाण्डागारीय ग्रन्थ सूची, संपा. सी.डी दलाल, गा. ओ. सीरीश, बरोडा, १९२९ ३. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह, संपा. चीमनलाल दलाल, गा. ओ. सीरीझ, वडोदरा, १९२०. ४. आनंद श्रावक संधि संपा. रमणिकविजयजी, महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रंथ - १, मुंबई १९६८. Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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