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२५. 'संधि' काव्य - उद्भव और विकास
डॉ. र. म. शाह, अहमदाबाद आचार्य हेमचन्द्रसूरि के साथ अपभ्रंश युग का समापन और नव्य भारतीय भाषाओं का उदय दृष्टिगोचर होता है । इस संधिकाल में रचा गया साहित्य आज तक पाटन, खंभात, जेसलमेर, अहमदाबाद आदि के जैन ज्ञानभंडारों में सुरक्षित कई हजारों ताडपत्रीय एवं कागजी हस्तप्रतियों में उपलब्ध होता है। इस साहित्यमें संस्कृत और प्राकृत ग्रंथो के साथ अनेक अपभ्रंश और उत्तरकालीन अपभ्रंश अथवा आद्य गूर्जर भाषाबद्ध कई लघु रचनाएँ जैसे कि रास, फागु, चर्चरी, चौपई आदि भी प्राप्त होती हैं। इन उत्तरकालीन अपभ्रंश रचनाओं में 'संधि' नामक बीस-पचीस लघु काव्यों की अनेक हस्तप्रतियाँ हमारा ध्यान आकर्षित करती है । इन संधियों का अध्ययन आज तक नहिवत् हुआ है । इसका सेक्षित परिचय कराना इस वक्तव्य का उद्देश्य है।
जिस तरह संस्कृत महाकाव्य सर्गों में और प्राकृत महाकाव्य आश्वासों में विभक्त होता है, इसी तरह अपभ्रंश महाकाव्य संधियों में विभक्त होता है । अपभ्रंश का उपलब्ध साहित्य देखने से इस बात का शीघ्र ही पता लगता है कि अधिकतर महाकाव्य 'संधिबंध' महाकाव्य हैं। दो-चार से लेकर सौ से भी अधिक संधियों में विभक्त अपभ्रंश चरितकाव्य, कथाकाव्य और पौराणिक महाकाव्य हमें मिलते हैं। इनकी हरेक संधि अनेक कडवकों में विभक्त होती है । 'संधिबंध' काव्यों के प्रारंभ में यह कडवक आठ पंक्तियों का होता था और संधि के प्रारंभ का तथा प्रत्येक कडवक के अंत का पद्य 'ध्रुवा' या 'घत्ता' नाम से प्रसिद्ध था। उपलब्ध काव्यों में हम देखते हैं कि पांच से लेकर पचीस-तीस कडवकों की एक संधि प्रायः होती है।
उपरि-निर्दिष्ट 'संधि' या 'संधि-काव्य' का बाह्य रूप इस संधिबंध महाकाव्य की एक संधि जैसा ही होता है । इस संधि काव्य में आद्य गाथा और कडवकान्त गाथा का वृत्त कडवक केवृत्त से भिन्न होता है। कडवकों की संख्या दो से लेकर पन्द्रह तक होती है और प्रत्येक कडवक में आठ से लेकर बारह तक पंक्तियां होती हैं । कडवक का वृत्त अधिकतर 'पद्धडिया' होता है, किन्तु बीच-बीच में 'मदनावतार' भी मिलता है । घत्ता का वृत्त प्रायः 'षट्पदी-छगुणिया' है । इस तरह ‘संधिबंध' की एक ही संधि में संधिकाव्य संपूर्णतः समा जाता है ।
इन संधिकाव्यों में विषय की दृष्टि से धार्मिक अथवा पौराणिक महापुरुष के जीवन का कोई उदात्त प्रसंग, आगमादिक की कोई लघु धर्मकथा अथवा प्रासंगिक उपदेशवचन होता है ।
___ ग्यारहवीं शताब्दी में प्राकृत भाषा के महाकाव्यों और चंपूकाव्यों में अपभ्रंश के अनेक पद्यखंड मिलते हैं, और नेमिचन्द्रसूरि-रचित आख्यानकमणिकोशवृत्ति (ई. स. ११०० ) में १. 'पद्य प्रायः संस्कृत-प्राकृतापभ्रंश-ग्राम्यभाषा-निबद्ध-भिन्नान्त्य-वृत्त-सर्गाऽऽश्वास-संध्यवस्कंध-बंध ___ सत्संधि-शब्दार्थ-वैचित्र्योपेतं महाकाव्यम् ॥' (-हेमचन्द्राचार्य, काव्यानुशासन ८.६) २. संध्यादौ कडवकान्ते च ध्रुवं स्यादिति ध्रुवा ध्रुवकं घत्ता वा ।। कडवक-समूहात्मकः सन्धिस्त
स्यादौ । चतुर्भिः पद्धडिकादैश्छन्दोभिः कडवकम् । तस्यान्ते ध्रुवं निश्चितं स्यादिति ध्रुवा,
ध्रुवकं, घत्ता चेति संज्ञान्तरम् ॥' (हेमचन्द्राचार्य छंदोऽनुशासन - ६.१ ) ३. इन छंदों के स्वरूप आदि के लिए देखिए-छन्दोऽनुशासनम्-३.७३, ४.८३, ७.१७
एवं स्वयम्भूच्छन्दस्-६.१२९, ८.११
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