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________________ ७४ प्राकृत भाषो में साम्य परिलक्षित होता है। वैदिक और प्राकृत भाषा में कुछ ऐसी समान प्रवृत्तियां मिलती हैं, जो लौकिक संस्कृत में प्राप्त नहीं होतों । श्री वी. जे. चोकसो ने इन दोनों में कई समान प्रवृत्तियों का निर्देश किया है' । वेदों की भांति अवेस्ता की भाषा और प्राकतों में कछ सामान्य प्रवृत्तियां समान रूप से पाई जाती हैं (१) संस्कृत का अन्त्य 'अस्', अवेस्ता में 'ओ' देखा जाता है । (२) अवेस्ता, प्राकृत और अपभ्रंश में स्वर के पश्चात् स्वर का प्रयोग प्रचलित रहा है । किन्तु वैदिक और संस्कृत में एक शब्द में एक साथ दो स्वरों का प्रयोग नहीं मिलता । .. (३) अवेस्ता में एक ही शब्द कई रूपों में मिलता है, यथा : आयु, अयु, हमो, हामो ; प्राकृत अपभ्रंश में भी इस तरह के शब्द-रूप विपुल मात्रा में मिलते हैं । ....... (४) ल्हमन ने प्राग्भारोपीय ध्वनि-प्रक्रिया का विचार करते हुए निर्दिष्ट किया है कि व्यतिरेकी ध्वनिप्रक्रियात्मक प्रामाणिक स्रोतों का निश्चय करने में एक आक्षरिक अपश्रुति भी हैं। सामान्य रूप से स्वरध्वनि के परिवर्तन को अपश्रुति कहते हैं । अपश्रुति मात्रिक और गुणीय दोनों प्रकार की कही गई है । प्राग्भारोपीय ध्वनि-प्रक्रिया में एक पद-ग्राम में विविध स्वरः ध्वनि-ग्रामों के परिवर्तन सभी भारोपीय बोलियों में लक्षित होते हैं और यही कारण है कि वे बोलियां मारोपीय भाषा की मूल स्त्रोत हैं। (५) अशोक के शिलालेखों तथा पालि ग्रन्थों के मूल अंशों में ऋ और लू स्वर उपलब्ध नहीं होते । वैदिक कालीन बोलियों की विकसित अवस्था में घोषभाव की प्रक्रिया का पता भी यहां से लगता है । अवेस्ता में कहीं कहां ऋ के स्थान पर र दिखलाई पड़ता है: यथा रतूम् गरमम् दरगम् आदि । इसका कारण स्वरभक्ति कहा जाता है । स्वरभक्ति पालि, प्राकृत और अपभ्रंश में भी पाई जाती है। टी० बरो के अनुसार ईरानी में भारत-यूरोपीय र, लू बिना किसी भेद र के रुप में मिलते हैं । ऋग्वेद की भाषा में मुख्यतः यही स्थिति है । किन्तु वास्तविकता यही है कि ईरानो, वैदिक, संस्कृत और पालि-प्राकृत में लू और र् दोनों मिलते हैं । ऋग्वेद की भाषा में "र" का मुख्यतः होने के कारण यही कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक बोली का मूलाधार उत्तर पश्चिमो प्रदेश में था, जब कि शास्त्रीय भाषा मध्य देश में बनी थी । इन दोनों को मूल विभाजन इस तरह का रहा होगा कि पश्चिमी विभाषा में र ठीक उसी तरह लू हो जाता होगा, जिस तरह ईरानी में (क्योंकि यह ईरानी के पास थी और साथ ही सम्भवतः परवर्ती प्रसार की धारा का प्रतिनिधित्व करती थी), जब कि अधिक पूर्वो विभाषा मूल मेद को सुरक्षित रखे थी । सभी प्राकृत भाषाएं सामान्य रुप से व्याकरणिक तथा कोशीय प्रवृत्तियों में वैदिक भाषा की श्रेणी में हैं जिन में प्राप्त होने वाली विशेषताएं संस्कृत में नहीं १-वो० जे० चौकसी : द विवागसुयम् एन्ड कम्पेरेटिव प्राकृत ग्रामर, अहमदाबाद, १९३३ । २-विन्फ्रेड पो० ल्हेमन : प्रोटो-इण्डो-युरोपियन फोनोलाजी, पाँचवां संस्करण, १९६६ पृ. १२ ३-टी० बरो: द संस्कृत लैंग्वेज, अनु० डा० भोलाशंकर व्यास, १९६५, वाराणसी, पृ० ९८-९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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