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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
भक्तामर स्तोत्र भक्ति का काव्य है जिसका मूल भावभक्ति एवं आराध्य की सेवा-अर्चना है इस दृष्टि से समस्त काव्य को शांतिरस का काव्य ही कहा जायेगा। तथापि कवि ने कल्पनान्तकाल के पवन से प्रलयकारी समुद्र का, उसके भयानक जलचरों का वर्णन करके भयानक रस को प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार क्रोधासक्त मदांध हाथी, एवं क्रोधोन्मत्तसिंह के वर्णन में रौद्र एव भयानक रस की योजना दृष्टव्य है।2 ३९ वां श्लोक तो भयानक, वीर, रौद्र और करुण रस का समन्तित उदाहरण है। भीमकाय विकराल हाथी में भयानकता है तो पराक्रमी सिंह वीरता से युक्त है । तो मदोन्मत हाथी के गंडास्थल तो विदीर्ण करने का दृश्य रौद्रतापूर्ण है और मृतप्रायः गजराज वरुवश करुणा को जन्म देता है । इसी प्रकार के रसों का संगम जिनेन्द्रदेव की शक्ति वर्णन में भी चित्रित है जहाँ वे संग्राम भयविनाशक हैं । 3 जलोदर के रोगी के वर्णन में भी करुण रस उभरा है। चूंकि इन रौद्र, भयानक आदि रसों का शयन तो प्रभु की महिमा के शीतल जल रूपी प्रताप से स्वयं शांति में ही परिवर्तित होता है।
'कलापक्ष' संक्षिप्त में ही पूर्ण कर रहा हूँ । उदाहरणों को प्रस्तुत करने की गुजाइश कहाँ ? हो, भक्तामर स्तोत्र का कलापक्ष एक अलग से निबन्ध तैयार करने की प्रेरणा अवश्य मिली है । ___ अंत में इतना ही कहकर अपनी बात समाप्त करूँगा कि यह भक्तामर स्तोत्र मात्र काव्य हो नहीं हैं, अपितु सर्व विघ्नविनाशक ही श्रीशक्ति प्रदायक आराधना और साधना मंत्र है जो
"विघ्नौधाः प्रलय यान्ति शाकिनी भूत पन्नगाः
विष नितिषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ।" 1. दे श्लोक (४), 2. (३८-३९), 3. (४२-४३), 4. (४५)
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