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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
आत्ममुख प्रदान करते ही हैं - जन-जन की कल्याणवाणी से आइलादित बनाते हैं। ऐसी वाणी किसी किसी संत के कंठ से फूटी हो तो फिर युग की भागीरथी ही बन जाती है । साहित्य - जहाँ भावों के साथ कला का संगम है, भक्ति-गीतों के साथ आराध्य के प्रति सान्निध्य है, आत्मा का परमात्मा के साथ नै कटय भाव है, भाषा और माधुय' भाव का साम प्य है और जहाँ है व्यष्टि के साथ समष्टि का एकत्व भाव । मानक हिन्दी कोश में साहित्य की व्याख्या करते हुर लिखा है -वे सभी वस्तुएँ जिनका किसी काय' के संपादन के लिये उपयोग होता है...आवश्यक सामग्रो । जैसे पूजा का साहित्यअक्षत जल, फूलमाला आदि ।...लेखों आदि का समूह या सम्मिलित राशि जिसमें स्थायी उच्च और गूढ़ विषयों का सुन्दर रूप से व्यवस्थित विवेचन हआ हो ।...साहित्य मनुष्य को ऐसी अन्तरदृष्टि देता है जिस से कलाकार किसी प्रकार की कलासृष्टि करके आत्मोपलब्धि करता है और रसिक लोग उस कला का आस्वादन करके लोकोत्तर आनंद का अनुभव करते हैं। 'भक्तामर स्तोत्र' की ऐतिहासिकता
अब आपके समक्ष इस भक्तामर स्तोत्र एवं आचाय' मानतुंग के विषय में सक्षिप्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करना विषयानुकूल एव योग्य समझता हूँ ।
जैनाचार्यो ने पंचपरमेष्ठी की भक्ति से ओत-प्रोत अनेक स्तवन या स्तोत्रों की रचनायें की हैं। उन स्तोत्रों में जिन गिने-चुने स्तोत्रों की महिमा है उनमें से भक्तामर स्तोत्र एक है । इसकी मात्रिक महत्ता भी विशेष है । दिगंबराचाय 'प्रभाचन्द्र' इसे 'महाव्याधिनाशक' स्तोत्र मानते हैं और श्वेतांबराचार्य प्रभाचंद्रसूरि इसे 'सर्वोपद्रवहर्ता' मानते है । इस स्तोत्र के साथ अनेक अतिशय एव किंवदन्तियाँ जुड़ी हुई हैं । भारतीय एवं पाश्चात्य अजैन विद्वान भैक्समूलर,
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