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भक्तामर स्तोत्र में भक्ति एव साहित्य
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ही भक्ति है । भक्ति के अनेक प्रकारों में दास्यभाव की भक्ति का सर्वाधिक महत्त्व प्रायः सभी धर्मो ने स्वीकार किया है । दास्यभाव की भक्ति के अंतर्गत भक्त अपन आराध्य के गुणों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन एवं वंदन करता हुआ स्वयं को आराध्य के चरणों में समर्पित कर देता है। उसके आत्मनिवेदन से संसारसुख की कोई आकांक्षा नहीं होती, वह तो विहवल होता है अपने आराध्य के परम-धाम की प्राप्ति के लिए । श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का स्वीकार किया है । नारदभक्ति सूत्र में दृढतापूर्वक के अनुराग को भक्ति कहा है ।
अन्य पश्चिमी धर्मो में भी भक्ति की महत्ता के अनेक उल्लेख उपलब्ध है । यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि ईश्वरप्राप्ति या भक्ति-प्राप्ति के लिये ज्ञान से अधिक भक्ति की विशेष प्रधानता रही है ।
साहित्य : साहित्य शब्द को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है : साहित्य अर्थात् सहित होने का भाव । पुनश्च "हितेन सहितम्” अर्थात हित के साथ होना । इससे इसको इस प्रकार कहा जा सकता है कि साहित्य में सहित एवं हित दोनों का साहचर्यभाव होने से स्व एव पर के कल्याण का भाव निहित है । क्योंकि साहित्य के अंतर्गत विश्व का प्रत्येक विषय समाहित है, पर यहाँ हम काव्यसाहित्य तक ही सीमित रहेंगे । कवि या सर्जक जब अपने मनः उद्गारों को वाणी द्वारा व्यक्त करता है अर्थात् जब उसकी अनुभूति वाणी के द्वारा झरने सी प्रवाहित होने लगती है तभी साहित्य का सर्जन होता है । ऐसी वाणी की कोमलता, भाव-प्रवणता कलाकार को 6. श्रवण की तिनम् विष्णोः स्मरण पाद सेवनम्
अर्चन वन्दन दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् । 7. माहात्म्य ज्ञानपूर्वकस्तु, सुदृढ़ो सधतो अधिको अनुरागः भक्तिः ।।
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