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जैन दर्शन में नारी भावना
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पूर्वक दौड़ने से पौषध का और क्रोध के कारण कषाय त्यागरूप उत्तर गुण का भंग हुआ है । इसलिये हे पुत्र ! दण्ड, प्रायश्चित्त लेकर अपनी आत्मा को शुद्ध करों । चुलनी पिता ने अतिचारों की आलोचना की । इसी प्रकार जब सद्धालपुत्र अग्निमित्रा आर्या के निमित्त से अपने धम' से च्युत हुआ तब उसकी आर्या ने उसे उद्बोधन देकर धर्म में स्थिर किया। इन उदाहरणों से यह पता चलता है कि नर
और नारी का सम्बंध केवल दैहिक नहीं है, केवल सांसारिक अभिलाषाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिये उनका गठबंधन नहीं हुआ, आपतु धर्मपूर्वक जीवन यापन के लिये ।
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