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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
तुम देवाणुप्पिए ! समण भगव महावीर वदाहिजाव (णमस्सहि, संक्कारेहि, सम्माणेहि, कल्लाण, मंगल, देवयं, चेइय) पज्जु वासहि, समणस्त भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइय सत्तसिक्खावइय दुवालसबिह गिहिधम्म पडिवज्जाहि ।'
अर्थात् देवानुप्रिय ! मैं ने श्रमण भगवान के पास से धम सुन है । वह धम' मेरे लिये इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर है । देवानुप्रिये ! तुम भगवान महावीर के पास जाओं, उन्हें वन्दना करो, (नमस्कार करों, उनका सत्कार करों, सम्मान करो, वे कल्याणमय हैं, मंगलमय हैं, देव हैं, ज्ञानस्वरूप हैं) पर्युपासना करो तथा ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ५ शिक्षाव्रत रूप १२ प्रकारका गृहस्थ धम स्वीकार करों ।
शिवनन्दा पति के कथन को सुनकर अत्यधिक प्रसन्न होती है और भगवान महावीर के पास जाकर श्राविका धम अंगीकार करती है । माता और पत्नीरूप में नारी अपने पुत्र व पति का धम मार्ग से विचलित होने पर साधना में सुदृढ़ करने के लिये प्रेरणा व प्रतिबोध भी देती थी । चुलनीपिता श्रावक ने जब प्रतिज्ञा धारण कर पौषध किया तब देव ने परीक्षा के निमित्त कई प्रकार के कष्ट दिये। अन्तिम उपसर्ग माता भद्रा के लिये था । तब मां की ममता और भक्ति के वशीभूत होकर उसने उस पुरुष को पकड़ना चाहा । ज्योहि वह पकड़ने उठा त्योहि देव लोप हो गया और हाथ में खांभा आ गया । वह उसी को पकड़ कर जोर जोर से चिल्लाने लगा । उसकी चिल्लाहट को सुनकर भद्रा सार्थवाही वहाँ आई और कहने लगा : 'तेरी देखी घटना मिथ्या है । क्रोध के कारण उस हिंसक और पापबुद्धि वाले पुरुष को पकड़ लेने की तुम्हारी प्रवृत्ति हुई है । इसलिये भाव से स्थूल प्राणातियात विरमणव्रत का भंग हुआ है । अयतना
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