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अप्रकाशित प्राकृत शतकत्रय
वावत्तरिकला कुसला कसणाए कणयरयणाएं । चुकंति धम्मकसणा तेसिं वि घम्मुत्तिदुन्नेऽउ ।।७७।।
कवि की मान्यता है कि धर्म से ही व्यक्ति, नव निधियों का स्वामी, १४ रत्नों का अधिपति एवं भारत के छह खण्डों का स्वामी चक्रवर्ती राजा होता है। सामान्य उपलब्धियों का कहना ही क्या ? इस ग्रन्थ की कुछ गाथाओ के परिचय के लिये आदि एवं अन्त की गाथाएं यहाँ दी जा रही हैं।
अथ श्री आदिनाथ जी शतकमारंभः आदि अंश
संसारे नस्थि सुहं जम्म-जरामरणरोग-सोगेहिं । तह बिहु मिच्छंघ जीया ण कुणंति जिणंदवरधम्मं ।।१।। माइ जाल सरिसं विज्जाचमक्कारसच्छह सवं । सामण्णं खण-दि8 खण-णठं का पडि वच्छो ।।२।। को कस्स इच्छ सयणे को व परो भवसमुद्द-भवणम्मि ।
मच्छुब्ध भमति जीआ मिलति पुण जपि दूरं ।।३।। अतिम अंश
आरोगरूव-धण-सयण-संपया दीहमाउसोहग्ग । सग्गापवग्गपमं णे होइ विष्णेण धम्मेणं ।। ८३॥ जत्थ न जरा ण मच्चू वाहिं ण न च सव्वदुक्खाई । सय सुच्छमि वि जीवो वसइ तहिं सव्व-कालंमि ।।८४।। अरयब तुवलग्गाणो भमंति संसार-कतारे सम्मतजीवा । णरय तिरिआ नहुँति कया वि सुहमाणुसदेवेहि ।।
उपज्जिता सिवं जति ।।८५।। ॥ इति शतक त्रिक ।।
। इति श्री आदिनाथ स्वामी शतक सम्पूर्णम् । शुभ मिति आश्वन शुक्क चतुर्थी बुध वासरेषु विक्रमीयाव्द १९८१/
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