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जैन दर्शन में द्रिक और काल की अवधारणा नहीं हो सकता, आकाश के ऐसे निरंश अवयव को प्रदेश कहते हैं । काल द्रव्य के प्रदेश नहीं होते । बीता समय नष्ट हो गया
और भविष्य असत् है, वर्तमान क्षण ही सद्भुत काल है । मुहूर्त, दिन, रात, माह, वर्ष आदि विभाग असद्भुत क्षणों को बुद्धि में एकत्र कर किये गये हैं। अतः क्षण मात्र अस्तित्व होने के कारण उसे प्रदेशसमहात्मक शब्द अस्तिकाय से सूचित नहीं किया गया है। गुण और पर्यायों के आश्रय को द्रव्य कहते हैं । प्रत्येक द्रव्य में दो "प्रकार के धर्म रहते हैं । एक तो सहभावी धर्मः, जो द्रव्य में नित्य रूप से रहता है, इसे गुण कहते हैं । गुण दो प्रकार के हैं :- सामान्य गुण और विशेष गुण । सामान्य गुण वे हैं, जो किसी भी द्रव्य में नित्य रूप से होते हैं। प्रत्येक द्रव्य के ६ सामान्य गुण हैं : (१) अस्तित्व-जिस गुण के कारण द्रव्य का कभी विनाश न हो, (२) वस्तुत्व -जिस गुण के कारण द्रव्य अन्य पदार्थो के क्रिया-प्रतिक्रियात्मक संबंधों में भी अपनेपन को नहीं छोड़ता, (३) द्रव्यत्व-जिस गुण कारण द्रव्य गुण और पर्यायों को धारण करता है । (४) प्रमेयत्वजिस गुण के कारण द्रव्य यथार्थ ज्ञान का विषय बन सकता है, (५) प्रदेशत्व-जिस गुण के कारण द्रव्य के प्रदेशों का माप होता है। (६) अगुरुलघुत्व-जिस गुण के कारण द्रव्य में अनन्त धर्म ऐकीभूत होकर रहते हैं-बिखर के अलग-अलग नहीं हो जाते । विशेष गुण प्रत्येक द्रव्य के अपने-अपने होते हैं। . द्रव्य का दूसरा धर्म. क्रमभावी, धर्म है जिसे पर्याय कहते हैं । यह परिवर्तनशील होता हैं । ।
। १. ६ द्रव्यों में से जीवास्तिकायः को छोड़कर शेष द्रव्य अजीत हैं और पुदगल, को छोड़कर शेष, द्रव्य, अरूपी है। यहां आकाश और काद य के संबंध में कुछ विचार प्रका-किये जा रहे हैं ।
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