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जैन दर्शन में दिक और काल की अवधारणा
डो. नरेन्द्र भानावत
___जैन दर्शन में विश्व अनादि अनन्त माना गया है। यहाँ सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर की प्ररूपणा नहीं की गई है । विश्व के लिए जैन दर्शन में लोक शब्द प्रयुक्त हुआ है । जो देखा जाता है वह लोक. है-"जो लोक्कइ से लोए" ('भगवती सूत्र' ५-९-२५) लोक की व्याख्यात्मक परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जिसमें ६ प्रकार के द्रव्य हैं, वह लोक है
धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जन्तवो । एस लोगोत्ति पत्रत्तो, जिणेहि वरदंसिहिं ।।
__-'उत्तराध्ययन सूत्र' २८-७ इन ६ द्रव्यों के नाम हैं : (१) धर्मास्तिकाय (गति-सहायक द्रव्य) (२) अधर्मास्तिकायः (स्थिति-सहायक द्रव्य), (३) आकाशास्तिकाय (आश्रय देनेवाला द्रव्य), (४) काल (समय), (५) पुद्गलास्तिकाय (मूर्त बड़ पदार्थ), (६) जीवास्तिकाय (चैतन्यशील आत्मा) । इन द्रव्यों की सह-अवस्थिति लोक है । इन ६ द्रव्यों में से काल को छोडकर शेष ५ द्रन्य अस्तिकाय कहे गये हैं । अस्तिकाल का अर्थ होता हैं प्रदेश और काय का अर्थ है राशि या समूह । अस्तिकाय का अर्थ हुआ प्रदेशों का समूह । जैन दर्शन में प्रदेश पारिभाषिक शब्द है । एक परमाणु जितनी जगह घेरता है, उसे प्रदेश कहते हैं। प्रकारान्तर से Space-point प्रदेश है । जिसका दूसरा हिस्सा
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