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, जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २ शोध की । श्री पूज्यों के दफतर तो इसके विशेष आकर हैं । पीछे के दफतरों को देखने से पता चलता है कि एक नन्दी (नामान्त पद) एक साथ दीक्षित मुनियों के लिए एक ही बार व्यवहृत न होकर कई बार' दीक्षाएं दिये जाने पर चलती रहती थी। अर्थात् 'चन्द्र'नन्दी चालू की और उसमें अधिक दीक्षाएँ नहीं हुई तो एकदो वर्ष चल सकती है अथवा निधन जैसी दुर्घटना या दीक्षानामस्थापन में गुरु-शिष्य के नाम, मुहूर्त-राशि आदि प्रतिकूल बैठ जाने से नन्दी बदली जाती थी, अन्यथा गच्छनायक की इच्छा और लाभालाभ के हिसाब से लम्बे समय तक भी चल सकती थी। . . .
६.
युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी से अब तक तो खरतरगच्छमें एक
और विशेष प्रणाली देखी जाती है कि पट्टधर आचार्य का नामान्त पद जो होगा, सर्वप्रथम वही नंदी स्थापन की जायगी। जैसे जिनचंद्रसूरिजी जब पहलेपहल मुनियों को दीक्षा देंगे तो उनका नामान्त पद भी अपने नामान्त पदानुसार. 'चन्द्र' ही रखेंगे । उनके प्रथम शिष्य सकलचन्द्रगणि थे । इसी प्रकार जिनसुखसूरि पहले 'सुख'नंदी, जिनलाभसूरिजी लाभनंदि, जिनभक्तिसूरिजी 'भक्ति'नंदी ही सर्वप्रथम रखेंगे, अर्थात् नवदीक्षित मुनियों का नामान्त पद सर्वप्रथम अनिवार्य रूप में वही रखा जायगा । ..
..... खरतरगच्छ में समाचारी मर्यादाप्रवर्तक आचार्य श्री जिनपतिसूरिजीने दफतर-इतिहास या डायरी रखने की बहुत ही सुन्दर
और उपयोगी परिपाटी प्रचलित की थी। ऐसी दफतर-बही में जिस संवत् मिति में जिन्हें दीक्षित किया एवं सूरिपद, उपाध्याय
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