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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
१. खरतरगच्छ के आदि पुरुष श्री वर्द्धमानसूरिजी के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरिजीके पट्टधर आचार्यों के नाम का पूर्वपद 'जिन” रूढ हो गया है । इसी प्रकार इनके शिष्य सुप्रसिद्ध संवेग रंगशालानिर्माता श्री जिनचन्द्रसूरिजी से चतुर्थ पट्टधर का यही नाम रखे जाने की प्रणाली रूढ हो गई है ।
२. युग प्रधानाचार्य गुर्वावली से स्पष्ट है कि उस समय सामान्य आचार्यपद के समय इसी प्रकार 'उपाध्याय', 'वाचनाचार्य' पदों के एवं साध्वियों के महत्तरा पदप्रदान के समय भी कभीकभी नामपरिवर्तन अर्थात् नवीन नामकरण होता था !
३. तपागच्छादि में गुरु-शिष्य का नामान्त पद एक ही देखा जाता है परन्तु खरतरगच्छ में यह परिपाटी नहीं है । गुरु का जो नामान्त पद होगा, वही पद शिष्य के लिए नहीं रखे जाने की एक विशेष परिपाटी है । इस में क्वचित् शान्तिहर्ष के शिष्य जिनहर्षगणि के नाम अपवाद रूप में कहा जा सकता है । भिन्न नन्दीप्रथा अर्थात् गुरु के नामान्त पद भिन्न होने वाले मुनि ने अपने ग्रन्थादि में यदि गच्छ का उल्लेख नहीं किया हो तो उसके खरतरगच्छीय होने की विशेष संभावना की जा सकती है ।
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४. साध्वियों के नामान्त पद के लिए नं. ३ वाली बात न होकर गुरु-शिष्या का नामान्त पद एक ही देखा गया है ।
-५ सब मुनियों की दीक्षा पट्टधर जगच्छनायक आचार्य के हाथ से ही होती थी । क्वचित् दूरवेश आदि में स्थिति होने आदि विशेष कारण से अन्य आचार्य महाराज, उपाध्यायों आदि विशिष्ट पद
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