________________ 391 Homage to Vaisali और समन्वय जिन स्थलों में हुआ उनमें वैशालो एक था। यदि इस नगर के किसी नरेश का आतिथ्य रामचन्द्र जी ने स्वीकार किया था, तो निश्चय हो इसको स्थापना उनके समय से काफी पहले हुई होगी। रामचन्द्र जी का जन्म स्वयं इक्ष्वाकु वंश में हुआ था और वयाला का राजा भी इक्ष्वाकुवंशीय था। यह मैं नहीं कह सकता कि पहिले अयोध्या वसायी गई या वैशाली। सम्भवतः अयोध्या वैशाली से पुराना नगर होगा। इसका एक प्रमाण यह है कि अथर्वेद में योग की कुछ अनुभूतियों की चर्चा करते हुए शरीर को देवों का पुर, अयोध्या कहा . गया है / इससे यह अनुमान होता है कि उस मंत्र के अवतरित होने के समय अयोध्या नगर बस चुका था और लोगों की जिह्वा पर उसका नाम आ चुका था। वैशाली की सम्पन्नता का भी बराबर वर्णन मिलता है। राजतंत्र से गणतंत्र में कब परिवर्तन हुआ यह मैं नहीं जानता, परन्तु ऐविहासिक काल में हम इस नगर से गणतंत्र के रूप में ही परिचित हैं। युद्ध देव ने इसकी व्यवस्था को एक प्रकार से आदर्श माना और उसको अपने संघ के संव्यूहन का आधार बनाया। चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय तक वैशाली की गणना देश के प्रमुख नगरों में थी। पीछे से नियति ने धीरे-धीरे इसे विलुप्ठ-गौरव बना दिया और आज वह नामशेष मात्र रह गया है। वैशाली की ख्याति एक प्रबल राज्य का मुख्य स्थान होने के कारण नहीं है, परन् इसलिये कि वह इस देश के धार्मिक इतिहास में अपना विशेष स्थान रखता है। जैन धर्म के प्रवर्तक चौवीसवें तीर्थंकर बर्द्धमान महावीर का यहीं जन्म हुआ। जन्म की रोचक कथा से हम सब परिचित हैं / देवों की भूल से पहिले वह ब्राह्मणी के गर्भ में स्थापित हो गए। कुछ दिन के बाद भूल का पता लगा। तीर्थकर ब्राह्मणी के गर्भ में नहीं रह सकता था क्योंकि उसका जन्म तो सर्वोच्च क्षत्रियकुल में ही हो सकता था। अता वह क्षत्रिया के गर्भ में पहुंचाये गए और जो बच्चा वहाँ था वह ब्राह्मणी के गर्भ में आया, अस्तुयों तो जैन-धर्म जिन धाराओं को अपना आधार मानता है वह पहले से चली आती थी और पार्श्वनाथ ने उनको व्यवस्थित रूप दिया जिसमें उनके ढाई हजार वर्ष बाद वह आज भी हमारे सामने हैं / स्वभावतः वैशाली का महत्व बहुत बढ़ा। जैन दर्शन तथा उपासना शैली के विकास में उसका स्मतंव्य स्थान है / बौद्ध धर्म के इतिवृत्त में भो नगर का प्रामुख्य बना रहा। गृहत्याग के पश्चात् जब कुमार सिद्धार्थ ज्ञान प्राप्ति के साधन की खोज में इतस्ततः भटक रहे थे, वह वैशाली आये थे और यहां के प्रसिद्ध तपस्वियों से उन्होंने दीक्षा भी ली थी। इसके बाद लब्धबोधि और तथागत होने के पश्चात् भी वह यहां आये / वैशाली उनके जीवनकाल में ही बौद्धधर्म का सुख्यात पीठ बन गया। उनके परिनिर्वाण के बाद भी पर्याप्त समय तक उसका यह स्थान अक्षुण्ण रहा / कहा जाता है कि उनके परमप्रिय शिष्य आनन्द के देहावसान पर उनके शरीर का एक अंश वैशाली में गिरा। उसके स्मारक-स्वरूप नगर में एक स्तूप बनाया गया / लगभग सौ वर्ष बाद संघ की द्वितीय संगीति अर्थात् महासमा यहाँ हुई। कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के सम्बन्ध में मतभेद हो गया था, इसीलिये इस सभा का आयोजन हुआ था। अंतिम निर्णय आठ भिक्षुओं की एक छोटी समिति-उपवाहिका को सौंपा गया। आठ भिक्षुओं की इस उपवाहिका की बैठक